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मंगलवार, 14 जनवरी 2014

मानसिक विक्षिप्त

ज़िन्दगी भर की अपनो की दी हुयी
कुंठा, पीडा ,बेचैनी, घुटन , तिरस्कार
उपेक्षा, दर्द , मजबूरी , विषमता
अकेलेपन की त्रासदी का जब जमावडा होता है
तब एक जुनूनी तेजाब उबलता है
जो खदक कर बाहर आने को आतुर होता है
दिल दिमाग की गुत्थमगुत्था में जब भी
कुछ बूँदें छलकती हैं
वो कविता नहीं होतीं
कुछ कह ना सकने
कुछ कर ना सकने की विवशता ही
वहाँ अवसाद रूप में बहती है
जिसे तुम कविता कहते हो
या कविता समझते हो
वो तो वास्तव में
अवसाद रूप में बहती विक्षिप्तता के कगार पर खडी
वो आकृति होती है जो गर
शब्दों के सहारे अवसाद का
पतनाला बन ना बहती तो
मानसिक विक्षिप्त करार दी जाती
मगर उसकी पीडा ना कभी समझी जाती
कि
अपनों के बीच , अपनेपन को तरसते
हजारों सपनों के ज़मींदोज़ होने पर
जिन सभ्यताओं के नामोनिशान भी नहीं रहते
उन्हें कितना खोद लो
कितने अन्वेषण कर लो
कितना ही पत्थरों की
मौन भाषा को लिपिबद्ध कर लो
उस वास्तविक अवस्था की तो
परछाईं भी ना हाथ में आती है
और ज़िन्दगी ना जाने कब लिहाफ़ बदल जाती है
और मानसिक विक्षिप्त सी कवितायें ही यहाँ आकार पाती हैं
अब वो कविता होती है या मानसिक विक्षिप्त का अवसाद
उन सुलगते रेशमी तागों कौन छूकर देखे और अपने हाथ जलाये
आज तो दो लोटे वाहवाही के जल का उँडेलना ही काफ़ी है अभिषेक के लिये ………

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