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बुधवार, 27 नवंबर 2013

बालार्क की तीसरी किरण



बालार्क की तीसरी किरण कैलाश शर्मा :

बालार्क काव्य संग्रह के तीसरे कवि की अनुभूतियों और संवेदनाओं से मिलवाती हूँ। 

कैलाश शर्मा की रचना "अनुत्तरित प्रश्न" एक अशक्त से सशक्ति की और बढ़ती माँ के ह्रदय की वेदना है जिसमें बेटी के जन्म पर खड़े होते प्रश्न को शायद  अब उत्तर मिल गया है। 

"अब मैंने जीना सीख लिया " ज़िन्दगी की हकीकत बयां करती रचना है पीछे मुड़कर देखने की आदत कैसे आगत को दुखी कर देती है उससे कवि  ने मुक्ति पायी है जब उसे हकीकत समझ आयी है जो इन पंक्तियों में उद्धृत हुआ है :अब पीछे मुड़कर मैं क्यों देखूं /सूनी राहों पर चलना सीख लिया। 

बहुत बहाये हैं आंसू इन नयनों ने / अब तो बाकि कुछ तर्पण रहने दो /चाहत के बीज क्यों बपोये थे ? / क्यों फल पाने कि इच्छा कि ?/ कुछ समय दिया होता खुद को /मन होता आज न एकाकी /देख लिए हैं बहुत रूप तेरे जीवन /अब चिरनिद्रा में मुझे शांति से सोने दो………एकाकीपन की वेदना का सजीव चित्रण करती रचना "क्यों अधर न जाने रूठ गए ?" . ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव का एकांत कैसे घुन की तरह खाता जाता है और अंदर से कितना खोखला कर देता है कि इंसानी मन विश्राम की और कूच करने को आकृष्ट होने लगता है , जरूरी है वो वक्त आने से पहले कुछ वक्त खुद के लिए जीना या खुद के लिए कुछ ऐसा संजो लेना जो इस एकाकीपन से मुक्ति मिल सके का भाव देती रचना सोचने को मजबूर करती है। 

कल की तलाश में /निकल जाता आज /मुट्ठी से / रेत की तरह .... कविता "ख्वाहिशें " की चंद पंक्तियाँ मगर सब कुछ कहने में सक्षम जिसके बाद कुछ कहने की शायद जरूरत ही नहीं । सारी ज़िन्दगी कुछ ख्वाहिशों की डोर पकडे दौडते हम जान ही नही पाते कब वक्त हाथ से फ़िसला और सरक गया और ख्वाहिशों  की फ़ेहरिस्त में ना कोई कमी हुयी।

कीमोथेरपी का ज़हर /जब बहने लगता नस नस में /अनुभव होता जीते जी जलने का / जीने कि इच्छा मर जाती /सुखकर लगती इस दर्द से मुक्ति/ मृत्यु कि बाँहों में /जीवन और मृत्यु कि इच्छा का संघर्ष /हाँ, देखा है मैंने अपनी आँखों से ………… कैंसर की भयावहता का इससे इतर  सटीक चित्रण और क्या होगा ?"जीवन और मृत्यु का संघर्ष " कविता मानो खुद जी कर लिखी हो कवि ने , किसी अपने को पल पल उस पीड़ा से गुजरते देखा हो और कुछ ना करने में जब खुद को असमर्थ पाया हो तो उस दर्द की अनुभूति को शायद यूं लिख कर कुछ कम कर पाया हो तभी तो कविता के अंत में कवि ने आखिर स्वीकार ही लिया इस सत्य को कुछ इस तरह : आज भी जीवंत हैं / वे पल जीवन के / काँप जाती है रूह /जब भी गुजरता/ उस सड़क से। रौंगटे खड़े करने को काफी है कविता में उपजी दिल दहला देने  वाली पीड़ा। 


जीवन के विभिन्न आयामों से गुजरते  कवि ह्रदय ने अपने अनुभवों की पोटली से एक एक कर ज़िन्दगी की हर हकीकत से रु-ब -रु करवाया है।  जब तक कोई भुक्तभोगी ना हो नही व्यक्त कर सकता इतनी सहजता से ज़िन्दगी की तल्खियों, दुश्वारियों , खामोशियों , एकाकियों से।  यूँ ही नहीं प्रस्फुटित होते शब्दबंध जब तक ह्रदय में पीड़ा का समावेश ना हो , जब तक कोई खुद ना उन अनुभवों से गुजरा हो और कवि वो सब कहने में सक्षम है जो आम जीवन में घटित होता है मगर हम उन्हें पंक्तिबद्ध नहीं कर पाते। 


अगली कड़ी में मिलते है एक नए कवि से.…। 

शनिवार, 23 नवंबर 2013

मुझे तो महज तमाशबीन सा खड़ा रहना है

आजकल कुछ नहीं दिखता मुझे 
ना संसार में फैली आपाधापी 
ना देश में फैली अराजकता 
ना सीमा पर फैला आतंक 
ना समाज में फैला नफरतों का कोढ़ 
ना आरोप ना प्रत्यारोप 
कौन बनेगा प्रधानमंत्री 
किसकी होगी कुर्सी 
कौन दूध का धुला है 
किसने कोयले की दलाली में 
मूंह काला किया है 
किस पर कितने भ्रष्टाचार 
के मामले चल रहे हैं 
कौन धर्म की आड़ में 
मासूमों का शोषण कर रहा है 
कौन वास्तव में धार्मिक है 
कुछ नहीं दिखता आजकल मुझे 
जानते हैं क्यों 
देखते देखते 
सोचते सोचते 
रोते रोते 
मेरी आँखों की रौशनी जाती रही 
श्रवणरंध्र बंद हो गए हैं 
कुछ सुनाई नहीं देता 
यहाँ तक की अपने 
अंतःकरण की आवाज़ भी 
अब सुनाई नहीं देती 
फिर सिसकियों के शोर कौन सुने 
और मूक हो गयी है मेरी वाणी 
जब से अभिव्यक्ति पर फतवे जारी हुए 
वैसे भी एक मेरे होने या ना होने से 
कौन सा तस्वीर ने बदलना है 
जोड़ तोड़ का गुना भाग तो 
राजनयिकों ने करना है 
मुझे तो महज तमाशबीन सा खड़ा रहना है 
और हर जोरदार डायलोग पर तालियाँ बजाना है 
और उसके लिए 
आँख , कान और वाणी की क्या जरूरत 
महज हाथ ही काफी हैं बजाने के लिए 
तुम कहोगे 
जब हाथ का उपयोग  जानते हो 
तो उसका सदुपयोग क्यों नहीं करते 
क्यों नहीं बजाते कान के नीचे 
जो सुनाई देने लगे 
जुबान के बंध  खुलने लगें 
आँखों के आगे तारे दिखने लगें 
बस एक बार अपने हाथ का सही उपयोग करके देखो 
है ना …… यही है ना कहना 
क्या सिर्फ इतने भर से तस्वीर बदल जाएगी 
मैं तुमसे पूछता हूँ 
क्या फिर इतने भर से 
घोटालों पर ताले लग जायेंगे 
क्या इतने भर से 
हर माँ , बहन , बेटी सुरक्षित हो जाएगी 
रात के गहन अँधेरे में भी वो 
सुरक्षित घर पहुँच जायेंगी 
क्या इतने भर से 
हर भूखे पेट को रोटी मिल जायेगी 
क्या फिर कहीं कोई लालच का कीड़ा किसी ज़ेहन में नहीं कु्लबुलायेगा 
क्या हर अराजक तत्व सुधर जाएगा 
क्या कानून सफेदपोशों के हाथ की कठपुतली भर नहीं रहेगा 
क्या फिर से रामराज्य का सपना झिलमिलायेगा 
क्या सभी कुर्सीधारियों की सोच बदल जायेगी 
और उनमे देश और समाज के लिए इंसानियत जाग जायेगी 
गर मेरे इन प्रश्नों की उत्तर हों तुम्हारे पास तो बताना 
मैं हाथ का सदुपयोग करने को तैयार हूँ ………एक आज्ञाकारी वोटर की तरह 
जबकि जानता हूँ 
राजनीति के हमाम में सभी वस्त्रहीन हैं  और मैं महज एक तमाशबीन 

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

बालार्क की दूसरी किरण


बालार्क की दूसरी किरण ज्योति खरे :

कवि की वास्तविक पहचान उसका लेखन होता है और उसका सबूत ज्योति खरे ने "आसमान , तुम चुप क्यों हो " नामक कविता के माध्यम से दिया है कि इंसान की इंसानियत के प्रति की गयी वादाखिलाफी एक दिन उसके सीने में जब शूल सी चुभती है तो कर देता है दोषारोपण खुद को मुक्त करने के लिए , बेसाख्ता उठा  देता है सवाल तुम चुप क्यों हो इन दुश्वारियों पर जो हर इंसानियत के पैरोकार को सोचने पर मजबूर कर देता है। 

"चिड़िया " कविता मानव के जाने कितने सपनो का चित्रण है जो उम्मीद की चिड़िया के पंखों पर उड़ान भरता है और निर्द्वन्द सा विचरता है शायद तभी उम्मीद पर दुनिया कायम है। 

ज़िन्दगी कितनी है कौन जानता है तो क्यों ना कुछ सत्यों को सहेजा जाए , कुछ ज़िन्दगी की खुश्गवारियों को चुना जाए , कुछ पल जो खिलखिलाते तो हैं आस पास मगर हैम नज़रअंदाज़ कर जाते हैं ऐसे में हमें चाहिए कि उनमे से थोड़ी से ख़ुशी की रोशनाई सहेज ली जाए तो जीवन सिर्फ दर्द की तहरीर ही नहीं बना रहता बल्कि एक खूबसूरत यादों की तस्वीर भी साथ साथ चलती है जो ज़िंदादिली कायम रखती है बस इतना सा तो कहना है कवता " पर अभी कुछ सत्य कह लें " का। 

पिता की यादों को समर्पित कविता " पापा अब " इस रिश्ते की ऊष्मा और गरिमा दोनों को सहेजती है वो सब देखती है जो सामने घटित हो रहा है मगर बेबसी की शाखें भी इर्द गिर्द होने का अहसास करा रही हैं।  संवेदनाओं से भरपूर रचना मन पर दस्तक देती है। 

गाँव के परिदृश्य को समेटती कविता " लौट चलो " की स्पन्दन्ता वो ही महसूस कर सकता है जो बिछड़ा हो अपने मूल से और कभी आ गया हो कुछ पल सहेजने……… अनुभव को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना और कल और आज के स्वरुप को इंगित करना ही इसकी विशेषता है। 

" सूख रहे आँगन के पौधे " नाम के अनुरूप आज के यथार्थ को चित्रित करती है जो हर घर की कहानी है , कैसे स्वार्थपरता और संवेदनहीनता ने रिश्तों को खोखला कर दिया है और जो इंसान के लहू में दीमक सी घुस गयी है जब तक खोखला ना करे छोड़ती ही नहीं।  

ज़िन्दगी के अनुभवों और सच्चाइयों को कोई सच्चा कवि जब महसूसता है तो रोके नहीं रुकता , कलम के माध्यम से छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी समस्या पर अपनी चिंताओं के फूल रख देता है कुछ ऐसी ही दीवानगी है ज्योति खरे के लेखन में जो हर पहलू पर दृष्टिपात करती है फिर समस्या देश की हो , समाज की या पारिवारिक सब पर उनकी कलम बराबर असर करती चलती है यही तो एक कवि के लेखन की , उसके मौन की मुखर अभिव्यक्ति होती है।  

मिलती हूँ अगले कवि के साथ :

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

बालार्क …………मेरी नज़र से

दोस्तों 
बालार्क यानि बाल सूर्य …… लेखन के क्षेत्र में हम सभी बालार्क ही तो हैं और उन सबको एकत्रित करके एक माला में पिरोने का श्रेय रश्मि प्रभा दी और किशोर खोरेन्द्र जी को जाता है और उसमें मुझे इतना सम्मान देना कि मेरे द्वारा लिखी प्रस्तावना को स्थान देना अन्दर तक अभिभूत कर गया साथ में आत्मविश्वास का संचार कर गया । इस संग्रह में मेरी तीन रचनाओं को भी स्थान मिला है जो मेरे लिये गौरव की बात है ।

बालार्क काव्य संग्रह यूँ तो अपने आप में अनूठा और बेजोड़ है जिसमे चुन चुन कर सुमनो को संजोया गया है और एक काव्य का गुलदस्ता बनाया गया है जिसे पढ़ने के बाद  सोच के जंगलों में उगी झाड़ियों को नए आयाम मिलते हैं , एक नयी दिशा मिलती है।कोशिश करती हूँ अपने नज़रिये से कवियों के लेखन को समझने की और आपके समक्ष प्रस्तुत करने की : 

आइये इस संग्रह के पहले कवि " देवेन्द्र कुमार पाण्डेय "  से मिलते हैं जिनकी पहली ही कविता "दंश" मन को झकझोरती है. इंसानी जीवन और पशु के जीवन में ना जहाँ कोई फर्क दिखता  है , एक कांटा सा  दिल में चुभता है और लहू भी नहीं निकलता ये है लेखन का व्यास तो दूसरी कविता "पिता " पिता के होने और ना होने के फर्क को यूं संजोती है जैसे कोई बच्चा अपने सबसे प्रिय खिलौने को सम्भालता है और उसके महत्त्व को जानता है मगर इंसान कहाँ जीते जी सारे सचों को जान पाता  है और जब जानता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. 

" धूप ,हवा और पानी " कविता एक ख़ामोशी की चीत्कार है , एक सच के मुँह से मुखौटा उतारता आईना है जिसे इंसानी भूख ने शर्मसार किया है , इंसानी कानूनों ने जहाँ पहरेदारी की मोहर लगाई है। ज़िन्दगी की जद्दोजहद का ऐसा  चित्रण जो रोज सामने होता है मगर किसी को फर्क नहीं पड़ता। 

" पानी " कविता जहाँ ना केवल संस्कारों पर वार करती है वहाँ पानी की किल्लत के साथ ज़िंदगी जीने को विवश इंसानी फितरत को भी बयां करती है।  ज़िन्दगी है तो जीना भी पड़ेगा मगर वक्त की बेरहमी कब किस रूप में उतर आये और खुद के आँखों का पानी भी जब सागर सा लगे , कह नहीं सकते।  वक्त के साथ कैसे बदल जाती हैं संस्कारों की परिभाषाएँ जो अंदर ही अंदर कचोटती तो हैं मगर इंसान विवश है इस सच के साथ जीने को क्योंकि कहीं ना कहीं वो खुद भी दोषी है , कहीं ना कहीं उन्होंने किया है खुद अपना दोहन तो फिर आज किस पर और कैसे करें दोषारोपण। 

देवेन्द्र पाण्डेय की कवितायेँ मन को तो छूती ही हैं साथ में सोचने को भी विवश करती हैं।  अपने आस पास घटित रोजमर्रा के जीवन से किरदारों सरोकारों को उठाना और उस दर्द को महसूसना जिसे आमतौर पर हम अनदेखा कर जाते हैं यही होती है कवि की दृष्टि , कवि की संवेदना , उसके ह्रदय की कोमलता जो उसे औरों से अलग करती है और उसका एक विशिष्ट स्थान बनाती है। 

 मिलती हूँ अगली बार अगले कवि के साथ ............

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

मेरे मन की मधुशाला


१ )
मेरे मन की मधुशाला का 
जो एक घूँट तुम भर लेते 
फिर चाहे उम्र भर होश में ना आते 
इक जीवन तो हम जी लेते ..........प्रिये !

२ )
मेरे तन के घाट पर 
जो तुमने शाहकार गढ़ा 
जीवन की मधुशाला में 
उसे अंतिम पड़ाव मिला ...............प्रिये!

३ )
नैनों के द्वारे से कभी 
जो उतरे होते निर्जन मन में 
वीराने भी गुलज़ार होते 
जो हाथ में हमारे हाथ होते ..........प्रिये ! 

४ )
देह की प्यास पर तुमने गर 
तरजीह जो ह्रदय को दी होती 
रूह की मधुशाला तुम्हारी 
लबालब भर गयी होती ...........प्रिये !

५ )
फिर न लफ़्ज़ों के मोहताज होते 
जो ककहरा प्रेम का पढ़ लेते 
फिर मधुशाला की एक ही घूँट में 
मौन की भाषा भी तुम गुन लेते ........प्रिये !

६ )
अधूरी अबूझी प्यास से 
न कदम तुम्हारे बोझिल होते 
जो मेरे मन की मधुशाला के 
तुम सजग प्रहरी होते ................प्रिये !

७ )
दो तन दो मन दो प्राण का 
जो एक एक घूँट हम भर लेते 
फिर न द्वी  के परदे में 
जीवन हमारे ढके होते ............प्रिये !

८ )
अपने एकांतवास से तुम 
जो बाहर  निकले होते 
हम की निर्झर मधुशाला में 
जीवन हमारे संवर गए होते ...........प्रिये !

९ )
गर अहम् की मीनारों के 
जो बुर्ज न इतने ऊंचे होते 
फिर तो मधुशाला के रस में 
मन रसायन हो गए होते ......प्रिये ! 

१ ० )
भोर की उजली धूप  में 
जो कुछ देर ठहरे होते 
तुम और मैं के बोझ तले दबे 
समीकरण सारे बदल गए होते ..........प्रिये ! 

१ १ )
घट भर भर कर पीया होता 
जो जाम न तेरा छलका होता 
फिर तो मधुशाला के मधु से तर 
तेरा रोम रोम हुआ होता ............प्रिये ! 

१ २ )
गर एक कोशिश की होती 
जो अपना सर्वस्व माना होता 
फिर मेरे मन की मधुशाला तक 
आना न था कठिन ......... प्रिये !

१ ३ )
खुद को न्योछावर करने की 
जो दलीलें थोपी थीं कल तुमने 
गर उन पर खुद भी चले होते 
फिर डगर कठिन न थी मधुशाला की .........प्रिये !

१ ४ )
इक बार सिर्फ मेरे हो गए होते 
जो दो घडी संग जी गए होते 
प्रेम की मधुशाला पर कुर्बान 
फिर मेरे मन की मधुशाला हो गयी होती ..........प्रिये ! 

१ ५ )
तुम न फिर तुम रहे होते 
मैं न फिर मैं रही होती 
इक दूजे में समायी हमारे 
मनों की मधुशाला होती ........प्रिये !