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बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

एक जटिल प्रश्न उत्तर की चाह में


आज  फिर अंतस में एक प्रश्न कुलबुलाया है 
आज फिर एक और प्रश्नचिन्ह ने आकार पाया है 
यूं तो ज़िन्दगी एक महाभारत ही है 
सबकी अपनी अपनी 
लड़ना भी है और जीना भी सभी को 
और उसके लिए तुमने एक आदर्श बनाया 
एक रास्ता दिखाया 
ताकि आने वाली  पीढियां दिग्भ्रमित न हों 
और हम सब तुम्हारी  दिखाई राह का 
अन्धानुकरण करते रहे 
बिना सोचे विचारे 
बिना तुम्हारे कहे पर शोध किये 
बस चल पड़े अंधे फ़क़ीर की तरह 
मगर आज तुम्हारे कहे ने ही भरमाया है 
तभी इस प्रश्न ने सिर उठाया है 

महाभारत में जब 
अश्वत्थामा द्वारा 
द्रौपदी के पांचो पुत्रों का वध किया जाता है 
और अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा को 
द्रौपदी के समक्ष लाया जाता है 
तब द्रौपदी द्वारा उसे छोड़ने को कहा जाता है 
और बड़े भाई भीम द्वारा उसे मारने को कहा जाता है 
ऐसे में अर्जुन पशोपेश में पड़ जाते हैं 
तब तुम्हारी और ही निहारते हैं 
सुना है जब कहीं समस्या का समाधान ना मिले 
तो तुम्हारे दरबार में दरख्वास्त लगानी  चाहिए 
समाधान मिल जायेगा 
वैसा ही तो अर्जुन ने किया 
और तुमने ये उत्तर दिया 
कि अर्जुन :
"आततायी को कभी छोड़ना नहीं चाहिए 
और ब्राह्मण को कभी मरना नहीं चाहिए 
ये दोनों वाक्य मैंने वेद में कहे हैं 
अब जो तू उचित समझे कर ले "
और अश्वत्थामा में ये दोनों ही थे 
वो आततायी भी था और ब्राह्मण भी 
उसका सही अर्थ अर्जुन ने लगा लिया था 
तुम्हारे कहे गूढ़ अर्थ को समझ लिया था 

मेरे प्रश्न ने यहीं से सिर उठाया है 
क्या ये बात प्रभु तुम पर लागू नहीं होती 
सुना  है तुम जब मानव रूप रखकर आये 
तो हर मर्यादा का पालन किया 
खास तौर से रामावतार में 
सभी आपके सम्मुख नतमस्तक हो जाते है 
मगर मेरा प्रश्न आपकी इसी मर्यादा से है 
क्या अपनी बारी में आप अपने वेद में कहे शब्द भूल गए थे 
जो आपने रावण का वध किया 
क्योंकि 
वो आततायी भी था और ब्राह्मण भी 
क्या उस वक्त ये नियम तुम पर लागू नहीं होता था 
या वेद  में जो कहा वो निरर्थक था 
या वेद में जो कहा गया है वो सिर्फ आम मानव के लिए ही कहा गया है 
और तुम भगवान् हो 
तुम पर कोई नियम लागू नही होता 
गर ऐसा है तो 
फिर क्यों भगवान् से पहले आम मानव बनने का स्वांग रचा 
और अपनी गर्भवती पत्नी सीता का त्याग किया 
गर तुम पर नियम लागू नहीं होते वेद के 
तो भगवान बनकर ही रहना था 
और ये नहीं कहना था 
राम का चरित्र अनुकरणीय होता है 
क्या वेदों की मर्यादा सिर्फ एक काल(द्वापर) के लिए ही थी 
जबकि मैंने तो सुना है 
वेद साक्षात् तुम्हारा ही स्वरुप हैं 
जो हर काल में शाश्वत हैं 
अब बताओ तुम्हारी किस बात का विश्वास करें 
जो तुमने वेद में कही या जो तुमने करके दिखाया उस पर 
तुम्हारे दिखाए शब्दों के जाल में ही उलझ गयी हूँ 
और इस प्रश्न पर अटक गयी हूँ 
आखिर हमारा मानव होना दोष है या तुम्हारे कहे पर विश्वास करना या तुम्हारी दिखाई राह पर चलना 
क्योंकि 
दोनों ही काल में तुम उपस्थित थे 
फिर चाहे त्रेता हो या द्वापर 
और शब्द भी तुम्हारे ही थे 
फिर उसके पालन में फ़र्क क्यों हुआ ? 
या समरथ को नही दोष गोसाईं कहकर छूट्ना चाहते हो 
तो वहाँ भी बात नहीं बनती 
क्योंकि 
अर्जुन भी समर्थ था और तुम भी 
गर तुम्हें दोष नहीं लगता तो अर्जुन को कैसे लग सकता था 
या उससे पहले ब्राह्मण का महाभारत में कत्ल नहीं हुआ था 
द्रोण भी तो ब्राह्मण ही थे ?
और अश्वत्थामा द्रोणपुत्र ही थे 
आज तुम्हारा रचाया महाभारत ही 
मेरे मन में महाभारत मचाये है 
और तुम पर ऊँगली उठाये है 
ये कैसा तुम्हारा न्याय है ?
ये कैसी तुम्हारी मर्यादा है ?
ये कैसी तुम्हारी दोगली नीतियाँ हैं ?


संशय का बाण प्रत्यंचा पर चढ़ तुम्हारी दिशा की तरफ ही संधान हेतु आतुर है 
अब हो कोई काट , कोई ब्रह्मास्त्र या कोई उत्तर तो देना जरूर 
मुझे इंतज़ार रहेगा 
ओ वक्त के साथ या कहूँ अपने लिए नियम बदलते प्रभु…………… एक जटिल प्रश्न उत्तर की चाह में तुम्हारी बाट जोहता है


15 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ प्रश्नों के उत्तर कभी नहीं मिलते

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  2. शायद ही इस कलयुग कृष्ण या राम का औतार हो उत्तर मिलना मुश्किल है.!
    नवरात्रि की शुभकामनाएँ ...!

    RECENT POST : अपनी राम कहानी में.

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  3. मैंने ब्राह्मण को नहीं मारा
    ब्राह्मण ने मेरे यज्ञ में अपनी इच्छा का घृत दिया
    मोक्ष - मेरे हाथों !
    मुझे समझना हो तो मेरी जगह पर आओ
    तुम्हारी जगह,मनःस्थिति से मैं ईश्वर नहीं रह जाता :)

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  4. बहुत से प्रश्न हैं जिसके उत्तर आज भी अनुत्तरित हैं-

    मेरी नई रचना :- मेरी चाहत

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (10-10-2013) "दोस्ती" (चर्चा मंचःअंक-1394) में "मयंक का कोना" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. कर्म से करता बनता है न की जन्म से ... शायद ईश्वर ये जानते थे ... पर युग युग में नियम तो बदलते ही हैं ... कई प्रश्न अधूरे ही रहते हैं ...

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  7. सार्थक प्रश्न का रश्मिजी ने सार्थक उत्तर दिया है ....

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. समाधान शायद निश्प्रश्न होने में ही है :)

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  10. पिछले २ सालों की तरह इस साल भी ब्लॉग बुलेटिन पर रश्मि प्रभा जी प्रस्तुत कर रही है अवलोकन २०१३ !!
    कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
    ब्लॉग बुलेटिन के इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (16) मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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