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बुधवार, 10 जुलाई 2013

ओ मेरे !.............9

रिदम वाद्य यंत्रों में कब होती है ............बिना साधे तो स्वर उसमे भी नहीं फूटा करते ............कसना पड़ता ही है तारों को , खींचनी पड़ती है नकेल तभी सप्त सुर एक संगीत की लड़ी में पिर जाते हैं ..........बस यूं ही ............तुम्हारा प्रेम है जिसे साधती हूँ मैं ..........अपनी साँसों की लड़ियों में , ह्रदय  के कम्पन में , धडकनों की झंकार में ............तब कहीं जाकर कभी कभी एक गीत झड़ता है तुम्हारी शुष्क प्रियता की शाख से ............और उसी में जीने की कोशिश करती हूँ मैं " पूरा एक  जीवन "............वरना  तो पीले पत्ते मूंह चिढाते रोज झड़ते हैं संवेदनहीन होकर और मैं समेट  लेती हूँ आँचल में उनका पीलापन ..........ना जाने कौन सी नीम की निम्बोली दाब रखी है तुमने दाढ़ के नीचे ...........कसैलापन जाता ही नहीं और मैं आदी  हो चुकी हूँ अब ...........तुम्हारे कसैलेपन की ......जानाँ !!!!!!!!

नमक ज़ख्म पर छिडकने से भी अब तो राहत मिलती है इसलिए गर्म करके चिमटे का सेंक दे देती हूँ कभी कभी ..........दर्द की बयारें कहीं बंद न हो जाएँ और मेरा जीना कहीं दुश्वार न हो जाए ...........आखिर आदत भी कोई चीज होती है ना ............सुनो ! तुमने भी क्या कभी ऐसी कोई आदत पाली है , जी सकते हो मेरी तरह ...........लबों पर मुस्कान धरे , ज़िन्दगी से भरपूर होकर ...............मगर दिल की जगह उसकी राख भी न बची हो ...............एक अंधकूप में रहकर रौशनी से बचकर ...............तुमसे एक सवाल है ये ...........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !

6 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक, सुंदर प्रस्तुति , आभार

    recent post ;

    http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html

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  2. वाह, बहुत ही लाजवाब रचना.

    रामराम.

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  3. प्रेम को ऐसे भी साधना ... जीवन पिस रहा हो जैसे ... दर्द की इन्तहा में जीवा इसी को कहते हैं शायद ....

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  4. " अब मसीहा भी तो रहते हैं नमक पाशों में ........"
    बिलकुल ठीक कह रहीं हैं आप !
    वह कभी आप सा जवाब नहीं दे पायेंगे.
    औरत हो कर जी लेना सब के बस की बात नहीं ......

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