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रविवार, 19 मई 2013

और आज चलन नहीं है आंतरिक सौन्दर्य को सराहे जाने का

नहीं जानती कविता का 
अर्थशास्त्र गणित या भूगोल 
क्योंकि ना कभी समकालीनों को पढ़ा 
ना ही कभी भूत कालीनों को गुना 
फिर कैसे जान सकती हूँ 
उस व्याकरण को 
जहाँ भाषा में शिल्प हो 
सौन्दर्य हो 
प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग हो 
फिर चाहे उनके दोहरे अर्थ ही 
क्यों ना निकलते हों 
और सब अपने अपने अर्थ उसके गढ़ते हों 
मगर कविता तो बस वो ही हुआ करती है 
जिसमें गेयता हो 
छंदबद्धता हो 
सपाटबयानी तो कोई भी कर सकता है 
उसके भावों को कौन गिनता है 
क्योंकि उसने नहीं जाना बाहरी सौन्दर्य 
और आज चलन नहीं है 
आंतरिक सौन्दर्य को सराहे जाने का 
आज चलन नहीं है सपाटबयानी का 
ऐसे में तुमने ही मेरे लिखे में 
जाने कैसे कविता ढूंढ ली 
जाने कैसे कविता के पायदान पर 
मेरी लेखनी को रख दिया 
मगर मैंने तो ना कभी कहा 
कि मैंने कविता को है गढ़ा 
जाने कौन से भाव तुम्हें 
उन्मत्त कर गए 
जाने कौन सा तार 
तुम्हारे दिल को छू गया 
जो तुम्हें सपाटबयानी में भी 
कविता का सम्पुट दिख गया 
और मैं हो गयी तल्लीन आराधना में 
साधना में , उपासना में 
बिना जाने 
बिना पुष्पों के अर्घ्य के 
आज के देवता प्रसन्न नहीं हुआ करते 
और मुझमे वो कूवत नहीं 
जो मछली की ग्रीवा से 
सागर में चप्पू चला सकूं 
या नए बिम्ब और प्रतीकों के प्रतिमान गढ़ूं 
जिनका कोई स्वेच्छाचारी अपने ही अर्थ निकाले 
और मेरी रचना का मूल स्वर ही शून्य में समाहित हो जाए 
मैं तो बस भावों का मेला लगाती हूँ 
और उसमे ज़िन्दगी के अनुभवों को 
बिना किसी सजावट के परोसा करती हूँ 
क्योंकि ज़िन्दगी कब दुल्हन सी श्रृंगारित हुयी है 
ये तो हर पल चूल्हे की आंच सी ही भभकती रही है 
और फिर जलती चिताओं की ज्वालाओं में 
कब श्रृंगार पोषित , सुशोभित , सुवासित हुआ है .............बस सोच में हूँ 

गर तुम स्वीकारो बिना दहेज़ की दुल्हन को 
जिसमे ना शिल्प है ना सौन्दर्य , ना बिम्ब ना प्रतीक 
तो इतना कर सकती हूँ 
जलती आँच से एक लकड़ी उठा सकती हूँ दुल्हन के श्रृंगार को
जो तुम्हारे सिंहासन को हिलाने को काफी है 
वैसे मेरी भावों की दुल्हन किसी श्रृंगार की मोहताज नहीं ..........जानती हूँ 

अब तुम खोजते रहना किसी भी कथ्य में "कविता या उसके अर्थ "
मगर आज के वक्त में तुम्हारा ये जानना भी जरूरी है 
भावों के तूफानों में कब सजावट सजी संवरी रहा करती है 

16 टिप्‍पणियां:

  1. स्पष्ट भाव लिये बहुत ही सटीक और सशक्त रचना.

    रामराम.

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  2. आज की कविता छंदों में बांध कर नहीं भावनाओं के अतिरेक से उपजती है .... बहुत सुंदर प्रस्तुति ।

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  3. वन्दना जी,

    कविता कहन के बहाने अंतर्मन की थाह लेती हुई बात कही है फिर वो चाहे गणित से शुरू हो भूगोल तक सिमटे या खुश्बू की तरह फैल जाए।

    आपकी तरह ही सपटबयानी और स्पष्टवादिता से भरे कथ्य को कुछ भी समझा जाए??? लेकिन वह कविता तो जरूर है, ऐसा मैं मानता हूँ...

    बहुत अच्छी लगी...

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  4. सुपर्ब वंदना.....

    लगता है अपने आप को पढ़ रही हूँ...!
    न जाने मुझ सी कितनी इस रचना के माध्यम से खुद को ढूंढ पाएंगी इसमें...!!
    सच में....
    हमारे पास सिवाय भाव और अनुभव के कुछ भी नहीं...शब्द हम गढ़ते नहीं बल्कि खुद ब खुद उसी से खींचे चले आते हैं शब्द...अनुभव में पिरोये भाव हमारे जरूर होते हैं....!
    धन्यवाद दूँ या बधाई...
    बड़ी मुश्किल में हूँ....!
    प्यार ...ढेर सारा प्यार...!!

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  5. बहुत सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति bin dahej kee dulhan ko koi nahi sarahta ..आभार . मेरी किस्मत ही ऐसी है .
    साथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमंवार (20-05-2013) के सरिता की गुज़ारिश : चर्चामंच 1250 में मयंक का कोना पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  7. तीखे सत्य को सपाट कह दिया ...
    यथार्थ भी तो कविता है अपने आप में ... बिना शब्दों के ...

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  8. क्या बात है,
    बिल्कुल नया अंदाज
    साहित्य मे गणित और अर्थशास्त्र
    बहुत बढिया


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  9. भावों के तूफान में कब सजावट ...
    बहुत खूब
    उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति

    सादर

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  10. बढ़िया ..आंतरिक सौन्दर्य के बिना तो सब रसहीन है ..

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  11. वाह वंदना जी , कविता के मर्म को किस स्पस्ट तरीके से रक्खा बधाई कविता तो वही जो समझ में आये और दिलों में उतर जाय, कठिन शब्दों से कविता नहीं साहित्य लिखा जाता है जिसे पढने की किसे फुर्सत है और किसे समझ .बस सीधा लिखो अब इसे कोई जवित कहे या न कहे परवाह नहीं .

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  12. Hameshaki tarah sundar....mera blog bhi padh lena aur mujhe bata dena!

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  13. Wah! Vandana wah!Meri aah mere blog pe padhana!Intezar rahega!

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