कुछ आईने बार बार टूटा करते हैं कितना जोड़ने की कोशिश करो .............शायद रह जाता है कोई बाल बीच में दरार बनकर .............और ठेसों का क्या है वो तो फूलों से भी लग जाया करती हैं ............और मेरे पास तो आह का फूल ही है जब भी आईने को देख आह भरी ............टूटने को मचल उठा . आह ! निर्लज्ज , जानता ही नहीं जीने का सुरूर ...........जो कहानियाँ सुखद अंत पर सिमटती हैं कब इतिहास बना करती हैं और मुझे अभी दर्ज करना है एक पन्ना अपने नाम से ...........इतिहास में नहीं तुम्हारी रूह के , तुम्हारी अधखिली , अधपकी चाहत के पैबदों पर ...........जो उघडे तो देह दर्शना का बोध बने और ढका रहे तो तिलिस्म का .............मुक्तियों के द्वार आसान नहीं हुआ करते और जीने के पथ दुर्गम नहीं हुआ करते ............कशमकश में जीने को खुद का मिटना भी जरूरी है फिर चाहे कितना आईना देखना या टूटे आइनों में निहारना .........तसवीरें नहीं बना करतीं , अक्स नहीं उभरा करते फ़ना रूहों के ........जानां !!!
मैंने तो सुपारी ले ली है अपनी बिना दुनाली चलाये भी मिट जाने की ...........क्या कभी देख सकोगे आईने में खुद के अक्स पर खुद को ऊंगली उठाये ............ये एक सवाल है तुमसे ..........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !
सही कह रही हैं आप, बहुत मुश्किल लग रहा है जवाब देना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
क्या जवाब हो सकता है ??????????
जवाब देंहटाएंबहुत हिम्मत चाहिए ... खुद पे ऊँगली उठाने के लिए ...
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा,पर जबाब देना मुश्किल है ,
जवाब देंहटाएंRecent post: ओ प्यारी लली,
भावपूर्ण प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंlatest post बादल तु जल्दी आना रे (भाग २)
अनुभूति : विविधा -2
चुप!!! कोई उत्तर नहीं सूझ रहा | निशब्द |
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
सही कहा. जबाब देना मुश्किल है ,
जवाब देंहटाएंक्या जवाब हो सकता है ?
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (31-05-2013) के "जिन्दादिली का प्रमाण दो" (चर्चा मंचःअंक-1261) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बिल्कुल सही कहा है आपने . आभार . हम हिंदी चिट्ठाकार हैं.
जवाब देंहटाएंBHARTIY NARI .
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