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सोमवार, 7 मई 2012

हाँ ........मैंने भी इक पाप किया है






आज भी दुखता होगा  अंतस
आज भी बंधाती होगी खुद को वो ढांढस 
शायद अपने किये अकृत्य पर 
शर्मिंदा होकर जब कहीं कुछ पढ़ती होगी
या कहीं कुछ लिखती होगी
या कुछ देखती होगी
अपराधबोध से ग्रसित हो जाती होगी
और उससे बाहर आने के लिए
एक संकल्प दोहराती होगी
कि अब नहीं होने देगी 
फिर से भ्रूण हत्या 
नहीं करेगी तुम्हारा बहिष्कार
शायद उस वक्त माँ कमजोर पड़ गयी होगी
और पत्नी जीत गयी होगी
एक शर्त के साथ
पहला और आखिरी दांव तुम लगाओगे
भ्रूण हत्या माँ के रूप में नहीं चाहती होगी 
मगर पत्नी के कर्त्तव्य के आगे 
जुबान पर ताला लगाया होगा 
चाहे एक बार ही आगमन से बेशक रोका होगा 
क्योंकि पाप तो पाप होता है 
चाहे एक बार करो या सौ बार 
और उसका फल भी पाया होगा 
वक्त की मार ऐसी पड़ी होगी 
ना जाने कितनी जगह पैसा डुबाया होगा 
मगर तब भी समझ ना आया होगा 
कि किस करनी का फल मिला है 
शायद यही डर रहा होगा 
बेटी की शादी में खर्चा कितना होगा
कैसे होगा और कहाँ से होगा
मगर वक्त की मार से कौन बचा है
कर्म का लेखा जोखा तो यहीं बुना है
इतना तो गँवा ही दिया होग 
जितना उसके पालन पोषण या
ब्याह में खर्च करना होता
तब जाकर समझ आया होगा 
उसका इन्साफ बेआवाज़ होता है
मगर इन्साफ जरूर होता है
जो बात वो ना समझा सकी होगी 
वो वक्त ने समझा दी होगी 
उस पिता तक भी पहुँचा दी होगी 
सब अपने भाग्य का खाते हैं
कोई ना किसी का लेखा जोखा रखता है
सब कुछ करने वाला तो 
ऊपर वाला होता है
फिर क्यों उसमे दखल दें
और भ्रूण हत्या का पाप सिर पर लें
बेशक आज विचारों में बदलाव आया है
और भ्रूण हत्या ना होने देंगे 
ये प्रण दोहराया है 
मगर फिर भी ये कसक रोज तडपाती तो होगी 
और उसकी अंतरात्मा कचोट कचोट कर कहती होगी
हाँ ........मैंने भी इक पाप किया है 
जिसका प्रायश्चित उम्र भर ना हो सकता है 




सत्यमेव जयते तो मैंने नहीं देखा सिर्फ उसके बारे में सुना है ........और ये कविता मैंने काफी दिन पहले ही लिखी थी ये सोच कर कि किन परिस्थितियों में कोई स्त्री या पुरुष ऐसा जघन्य कृत्य करता होगा  और फिर बाद में उसका परिणाम भी भुगतता होगा और एक माँ को बाद में कैसा लगता होगा उसको लिखने की कोशिश की थी और लगता है इस मौके पर ऐसी रचना का आना भी जरूरी है ताकि लोग समझ सकें भ्रूण हत्या जिन कारणों से करते हो किसी न किसी रूप में उसका भुगतान यहीं हो जाता है .

22 टिप्‍पणियां:

  1. अंतस को झकझोरती बहुत मर्मस्पर्शी रचना....आभार

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  2. Stree se aksar jaghany krutya karwaya jata hai! Rachana bahut zabardast hai.

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  3. सत्यमेव जयते का सार्थक प्रयास अगर समाज में बदलाव ला सके तो एक शुभ संकेत है ...
    संवेदनशील रचना है आपकी ...

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  4. सार्थकता लिए सटीक अभिव्‍यक्ति ।

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  5. bahut achchha likhaa aap ne har pita kahin is paap se gujraa jrur hota hai .....

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  6. बहुत खूब लिखा है वंदना जी .....और सत्य भी

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  7. पत्नी नहीं जीतती ... माँ बेबस हो जाती है , सारा हिसाब फिर धरती माँ करती है

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  8. samaj se sarokar karati achhi rachna....is-se koi ferk nahi padata ki kavita aapne SMJ se pahle likhi yaa baad mein..bahut hi umda likhi hai...!!!

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  9. इसके लिए दोषी कोई भी हो लेकिन जो अपराध भाव माँ को होता है उसे कोई भी share नहीं कर सकता....!!

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  10. सशक्त और प्रभावशाली रचना.....

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  11. अपनी इस सुन्दर रचना की चर्चा मंगलवार ८/५/१२/ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर देखिये आभार

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  12. संस्कारित शब्दों में एक माँ की ऊहापोह और वेदना का चित्रण खुबसूरत सलीके से...
    वाह...दीदीजी!

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  13. बहुत सार्थक रचना...................

    काश के हम बदल पाते.......................

    अनु

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  14. पत्नी परवश हो बेबस हो जाती है ..... सशक्त लेखन

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  15. सामयिक रचना...बेबस माँ की कहानी...लेकिन पाप तो पाप होता है.

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  16. अगर आपने यह कार्यक्रम नहीं देखा तो आपने बहुत कुछ मिस कर दिया....ने केवाल यह मामला बल्कि इस से जुड़े कई सारे विषयों को बहुत ही साटीक अंदाज़ में लोगों के सामने रखा गया था जो निश्चित ही बहुत ही प्रभावशाली था खैर मैंने भी इस प्रोग्राम की थोड़ी सी समीक्षा लिखी है। हो सके तो मेरी फेस्बूक की वाल पर जो पोस्ट जो NBT का लिंक लगा है उसे ज़रूर पढ़िएगा।

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  17. रचना हृदय को स्पर्श करती है।

    उपर वाला सब हिसाब रखता है।

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  18. ऐसी अनेक उहा-पोह से संघर्ष करती हुयी स्त्री समाज के बनाये नियमों के आगे कभी पत्नी तो कभी बहू के रूप में हार जाती है...

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  19. ऐसी अनेक उहा-पोह से संघर्ष करती हुयी स्त्री समाज के बनाये नियमों के आगे कभी पत्नी तो कभी बहू के रूप में हार जाती है...

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