जब भी मन आहत हुआ
कभी देखकर
तो कभी सुनकर
स्त्री की दुर्दशा पर
भावों को
कविता में गूंथ दिया
और कर लिया मुक्त
कुछ क्षण के लिए
क्षणिक आवेगों से
मगर कभी ना किया
कुछ भी स्त्री के
स्वाभिमान के लिए
नहीं सोचा
कैसे उसे उसकी
दुर्दशा से निजात दिलाऊँ
कैसे उसके ज़ख्मों पर
मरहम का फाया लगाऊँ
कौन सा ताबीज गढ़वाऊँ
जिसे पहन
उसे खुद के लिए भी
जीना आ जाये
कौन सा ग्रह शांत कराऊँ
कौन सा हवन अनुष्ठान कराऊँ
कि स्त्री को स्त्री का
रूप वापस मिल जाये
वो सिर्फ एक
शो केस में रखी
गुडिया से आगे
साँस लेती
ज़िन्दगी को जीती
आसमाओं को छूती
एक इबारत बने
कुछ नहीं कर पायी ऐसा
जो समय की शिला पर
अंकित हो सके
नहीं लिख पाई ऐसा
जो स्वर्णाक्षरों में समेटा जा सके
फिर कैसे कह दूं
स्त्री विषयक कविताओं में
मैंने स्त्री से न्याय किया
सिर्फ स्त्री होना या
स्त्री विषयक कवितायेँ लिखना ही
शोध का विषय तो नहीं हो सकता ना
सिर्फ दर्द को महसूसना
और कविताओं में उतारना
ही तो स्त्री का संपूर्ण व्यक्तित्व नहीं
दर्द और भावों को
शब्दों के अलंकरण से
सुसज्जित करना
सिर्फ साहित्य सृजन हो सकता है
या वाहवाही समेटने का एक पुल
मगर जब तक ना
स्त्री में खोज कर उसका
ना स्वर्णिम दिया
तब तक
स्त्री विषयक कवितायेँ लिखना
महज स्वयं को भ्रमित करने का कोरा आश्वासन हुआ ..........
bahot bhawpoorn.....
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने ... यहाँ लोग बातें बनाना तो जानते है ... पर हकीकत मे अपने कहे और किए के फर्क को नहीं देख पाते है !
जवाब देंहटाएंस्त्री विषयक कविताएँ लिखना....महज स्वयं को भ्रमित करनेका कोरा आश्वासन हुआ!...पक्तिओं में यथार्थ झलक रहा है!...सुन्दर रचना, बधाई!
जवाब देंहटाएंओह, आपने तो उघार दिया सबकुछ, सच भी यही है कविता लिखना और साहित्य का सृजन करना जुदा बात है और स्त्री को उसका हक देना जुदा बात...
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सशक्त रचना....
जवाब देंहटाएंमैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं। हां यह जरूर है कि स्त्री की किस वेदना को आप कविता में उतार रही हैं, यह महत्वपूर्ण बात है। अगर ऐसे सवाल आपके मन में आ रहे हैं तो यह अच्छी बात है। मैं पहले भी कहता रहा हूं कि आपकी अभिव्यक्ति अच्छी है। आप थोड़ा रूककर सोचकर अपनी कविताओं के लिए विषयों का चुनाव करें तो आप सचमुच स्त्री की पीड़ा को स्वर दे सकती हैं। स्त्री की पीड़ा केवल प्रेम और देह तक सीमित नहीं है। वह उसके घर संसार,काम के परिवेश,प्रेम के इतर संबंधों और दुनिया जहान से जुड़ी है।
जवाब देंहटाएंराजेश भाई से सहमत।
हटाएंबहुत कुछ सत्य कहा है राजेश ने...स्त्री की पीडा को देह से न सम्बोधित किया जाय ...यही सच है ...आप सोच विचार कर लिखें....क्या अर्थ है निम्न बन्द का समझ से परे है...
हटाएंमगर जब तक् ना
स्त्री में खोज कर उसका
ना स्वर्णिम दिया तब तक..
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ उबल रहा है आपके मन में.
जवाब देंहटाएंसतह को छोड़,गहराई में आनन्द समाया है.
आपकी कवितायें हमेशा सच्चाई को साथ लेकर चलती हैं !
जवाब देंहटाएंआपने यथार्थ को शब्दों में बखूबी ढाला है !
आभार !
बढ़िया रचना,बहुत सुंदर भाव प्रस्तुति,बेहतरीन पोस्ट,....
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST...फुहार....: दो क्षणिकाऐ,...
सच लिखा है ... दरअसल हर कोई लोकप्रियता की तलाश एमिन रहता है ..
जवाब देंहटाएंbaat to kuchh sach hai... par kavita ka srijan ho to bhaw mridul ho jata hai aur wo striyon se juda sa mahsoos hone lagta hai, aisa mujhe lagta hai.........!
जवाब देंहटाएंयथार्थवादी भावो से भरी गहन रचना... आभार
जवाब देंहटाएंएक एक शब्द आग के टुकड़े हैं .... जो जलेगा वह न वाहवाह करेगा , जिसने जलकर लिखा - उसे कुछ भी कह लो , फर्क नहीं पड़ेगा . बहुत ही सही परिप्रेक्ष्य है
जवाब देंहटाएंMukti ka maarg maujood hai.
जवाब देंहटाएंApnane ke liye apne hai bhay ko tyagna hota hai.
Nis-sankoch apnayen wh maarg to bharpoor santushti deta hai ,
aatma tak ko, gahraai tak.
तथ्यात्मक सत्य भी कविता को उतना ही भाता है।
जवाब देंहटाएंbeautiful poem
जवाब देंहटाएंउत्तम लेखन, बढिया पोस्ट - देहात की नारी का आगाज ब्लॉग जगत में। कभी हमारे ब्लाग पर भी आईए।
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar rachna
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना......बढ़िया प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंVANDANA JI , AAJKAL AAPKEE KAVITAYEN PADH KAR BAHUT SUKOON
जवाब देंहटाएंMIL RAHAA HAI . AAP KHOOB LIKH RAHEE HAIN . BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNAAYEN .
VANDANA JI , AAJKAL AAPKEE KAVITAYEN PADH KAR BAHUT SUKOON
जवाब देंहटाएंMIL RAHAA HAI . AAP KHOOB LIKH RAHEE HAIN . BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNAAYEN .
भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंsach me bahut accha likha hai vandna ji......
जवाब देंहटाएंyahan log bate hi banana jante ......
आपने सही कहा ... सिर्फ बड़ी बड़ी बातें करने से कुछ नहीं होता ... बहुत कम होते हैं जो .. जो कुछ कहते हैं .. बोलते हैं ... और लिखते हैं .. उस पर अमल भी करते हैं ... बेहतरीन रचना .. !!
जवाब देंहटाएंभाव पूर्ण और प्रवाह मयी रचना
जवाब देंहटाएंkathni karni ka antar prakat kiya aapne....ek stri vishyak kavita par aapka bhi swagat hai....aasha hai ye kavita tareef pane se jyada logo ki karni badalne mein saksham ho...
जवाब देंहटाएंwelcome to माँ मुझे मत मार
साहित्य सिर्फ़ सृजन हो सकता है
जवाब देंहटाएंया वहवाही लूटने का एक पुल
** कथित बुद्दिजीवी इसका जवाब देंगे। आज तो सब जगह दूसरा पक्ष ही दिख रहा है।
sach, sirf kathani se kaam nahin chalega
जवाब देंहटाएंsahi bat sirf kavita likhne bhar se kya hoga ik sarthak kadam bhi jaruri hai....
जवाब देंहटाएंकेवल स्त्री विषयक कविताएं लिखना स्वयं को भ्रमित करना है।
जवाब देंहटाएंसही औ दो टूक अभिव्यक्ति।
सही कहा महेन्द्र जी...कवितायें स्त्री विषयक नहीण---स्त्री-पुरुष विमर्श की होनी चाहिये...आखिर हम स्त्री व पुरुष को अलग अलग देखते ही क्यों हैं...
हटाएंआज 01/04/2012 को आपका ब्लॉग नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक किया गया हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
आज 08/04/2012 को आपका ब्लॉग नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक किया गया हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
सच है स्त्री के स्वाभिमान के लिए कोई कुछ नहीं करता, भले ही उसकी पीड़ा और दशा पर कितना कुछ लिख दिया जाता है. पर ये भी है कि जिसने भी लिखा कम से कम इतनी संवेदना तो है कि कोई इसे समझ सका. सोचने के लिए विवश करती रचना, शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंएक दम सही कहा है |
जवाब देंहटाएंदो- टूक !
जवाब देंहटाएंबहुत सच्ची , गहन, विचार करने योग्य अनुभूति वंदनाजी !!!
जवाब देंहटाएंऔर मै राजेश जी के बातों से सहमत नहीं .....
जवाब देंहटाएंवंदना जी बिल्कुल सही लिखा है आपने | ये कोई जरुरी नहीं की स्त्री की दैहिक पीड़ा ,या प्रेम की पीड़ा ही उसे सताती है अक्सर स्त्रियाँ अपने घर परिवार में लिप्त हो बच्चों पति परिवार की खुशियों में उनकी सुख के लिए अपने इस (दैहिक पीड़ा ,या प्रेम)पीड़ा को भुला देती हैं , पर इन sbke अलावे भी उसे स्त्री होने के अपराध के तौर पर बहुत बार समाज से घर से बार बार , निराश मिलती है चाहत होते हुए काबिलियत होते हुए , सक्षम होते हुए भी यदि ये सारी स्त्रियों की पीड़ा नहीं तो कमसे कम आधी स्त्रियों की पीड़ा तो जरुर है | आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में नारी की ज़िन्दगी बेबस और बदतर है और जो सब कुछ समझ कर भी नहीं समझते तो यही कहावत चरितार्थ होगी "जाके पैर ना फटे बिवाई वो क्या जाने पीर परायी "