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शनिवार, 19 नवंबर 2011

सम स्तर पर ही प्रकृति में संतुलन होता है


जानती हूँ चाहते हो तुम भी
अहिल्या बन जाऊँ मैं भी
तुम्हारे श्राप से श्रापित हो 
और जीवित पाषाण बन 
तुम्हारे दंभ की आहुति बन
भोग्या सामग्री सम 
जीवन यज्ञ में पाषाण को 
अमरत्व प्रदान करूँ
मगर मूक बधिर की भांति 
पाषाण जो सब सहता है
आंधी, पानी ,धूप, बारिश
तूफ़ान, झंझावत
मगर ज़ख्मों को उसके 
कौन सहलाता है 
जानती हूँ तुम्हारे मन के 
पौरुषिक अवलंबन को
जिसमे आज भी गौतम का 
प्रतिबिम्ब ही समाया है
क्रोधाग्नि में दग्ध तुम्हारा
आहत पौरुष कभी 
नहीं जान पाया सत्य को
या शायद जान कर अन्जान बनना 
तुम्हारी नियति है
युगों की परम्परों से 
तुम कैसे मुक्त हो सकते हो
मगर बिना दोष आखिर कब तक
मैं अहिल्या बन श्रापित होती रहूंगी
कब तक झूठे रिवाजों की भेंट चढ़ती रहूंगी
आखिर कब तक ना किये अपराधों का
अनचाहा बोझ उठाती रहूंगी
अब तोडती हूँ हर श्लाघा 
जो तुमने मेरे चारों तरफ बनाई थी
शायद यही तुम्हें नहीं भाती है
तभी तुम टूटते समीकरण देख बौखला जाते हो
और एक बार फिर उन्ही अंधे कुओं  की तरफ 
मुझे धकेलते हो 
कभी डराकर तो कभी फुसलाकर
कभी समाज का भय दिखाकर 
तो कभी मुझे बेबस जान 
मेरा और कोई ठिकाना नहीं
सिवाय तुम्हारे 
है ना ..............यही सच
मगर एक बार बढे कदम को
इस बार नहीं मुड़ने दूंगी
इस बार इतिहास खुद को नहीं दोहराएगा
अब नहीं बनूंगी दोबारा अहिल्या 
बेशक तुम्हें पाषाण बना दूं
मगर अब नहीं दूंगी अनचाही क़ुरबानी 
सिर्फ तुम्हारे झूठे दंभ को पोषित करने के लिए 
एक बार तुम भी तो उतरकर देखो
एक बार तुम भी तो जलकर देखो
इस आग में ....................
शायद तब जानोगे परित्यक्ता का दर्द
शायद तब जानोगे पाषाण होना क्या होता है 
सम स्तर पर ही प्रकृति में संतुलन होता है 

37 टिप्‍पणियां:

  1. ओह ... इतनी जबरदस्त ... वाह उम्दा ... अहिल्या का दर्द ..यशोधरा का दर्द ... उसको आवाज दी ... हर पंक्ति का स्वाद भाव सब दिल में उतर गया ... क्या कहूँ ... बहुत सुन्दर

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  2. बहुत अच्छी कृति ।
    आप बधाई की प्राप्त हैं और ये प्रतिभा भावों को शब्दबद्ध करने की अद्भुत ।

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  3. Koyee nahee jaan sakta ek parityakta ka dard.....yaa ki paashaan hona kya hota hai!

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  4. मन के भाव को अहिल्या के माध्यम से शब्द दिए अहिं आपने ... गज़ब ..

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  5. पाषाण होना क्‍या होता है ...गहन भावों का संगम ।

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  6. प्रकृति का दर्द कौन समझ सका है..अद्भुत कृति ....

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  7. एक अनकहे विषय पर सार्थक रचना...
    सादर बढाए...

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  8. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .......

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  9. NAARI KI SAHANSHILATA KO AAPNE ACHCHHA UJAGAR KIYA HAI. @ UDAY TAMHANEY. BHOPAL.

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  10. बहुत सुन्दर .. सम स्तर ही तो नहीं है .. जिस दिन समानता हो जायेगी तो ... कुछ लिखना व्यर्थ है ;)

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  11. भावों की उद्दत्ता रचना की प्रासंगिकता बढ़ा देती है ........!

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  12. इस रचना में आपने एक बिल्कुल ही अनूठे विषय को छुआ है और उसके साथ न्याय भी किया है। एक अलख जगाने की कोशिश की है आपने, उम्मीद है कि आप सफल होंगी इसमें।

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  13. अब नहीं दूंगी अनचाही कुर्बानी
    सिर्फ तुम्हारे झूठे दंभ को पोषित करने के लिए
    एक बार तुम भी तो उतर कर देखो
    एक बार तुम भी तो जल कर देखो
    इस आग में....
    शायद तब जानोगे परित्यक्ता का दर्द
    शायद तब जानोगे पाषाण होना क्या होता है....


    अच्छा और सच्चा चित्रण....
    बहुतों के जीवन की सच्चाई है ये...बस शब्द आपके हैं...!

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  14. बहुत सुंदर ...... सच है समानता न रखी तो प्रकृति का संतुलन भी न रहेगा .....गहरा सन्देश वंदनाजी

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  15. अनजान होना ही असंतुलन का कारण है.अच्छा लिखा है.

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  16. सम स्तर पर ही प्रकृति में संतुलन होता है ...
    अब नहीं देती हैं वे कोई अग्नि परीक्षा ,
    अब नहीं सजाती हैं खुद अपनी चिता !

    प्रभावोत्पादक रचना !

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  17. पाषाण होना क्‍या होता है...
    सच!ये समझने के लिए योग्यता चाहिए!

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  18. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-704:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  19. एक बार तुम भी उतरकर देखो
    एक बार तुम भी जल कर देखो

    आत्मविश्वास को अभिव्यक्त करती सुंदर कविता।

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  20. अहिल्यत्व का दर्द
    पाषाणत्व की अमरता
    सुन्दर उपालंभ और प्रतीक

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  21. गहन भावो से सजी सवरी कविता क्या है दिल में गहरे तक उतर जाने वाले शब्द है एक एक. गहन पीड़ा को प्रतिकार में बदलते शब्द कलंजयी रचना प्रदान कर रहे है बधाई वंदना जी

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  22. बहुत सुन्दर और सार्थक रचना! बधाई!

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  23. Shraap se shraapit ho kar ahilya ban jane kee chaah... ek pankti ne nihshabd kar diya mujhe...

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  24. गहरी अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर ..

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  25. बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति.

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  26. सुन्दर बिम्ब ..शानदार पोस्ट|

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