हिंदी से प्रेम होने के नाते माफ़ी के साथ कहना चाहूँगा कि आपका यह आलेख तथ्यों पर आधारित नहीं है. भारत में हिंदी की स्थिति इतनी दयनीय भी नहीं है... देश से तीन चौथाई हिस्से में सरकार और सरकार से इतर अधिकांश काम काज हिंदी में ही होता है. जिनमे प्रमुख हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार,झारखण्ड,छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड. यह देश का बहुत बड़ा हिस्सा है. देश में एक आकडे के अनुसार १३० मिलियन घरों में टी वी पहुँचता है और टीवी पर लगभग ८५% कंटेंट हिंदी या भारतीय भाषों में होता है. हिंदी ने पिछले दस वर्षों में मीडिया पर राज़ करना शुरू कर दिया है जिसमे दूरदर्शन के साथ साथ ने उभरते चैनलों का योगदान है. एन सी ई ए आर द्वारा किये गए सर्वेक्षण के अनुसार देश के लगभग ७२% बच्चे सरकारी स्कूल में जाते हैं और सरकार के प्रयास से इसमें २००८-०९ में ४% की बढ़ोतरी हुई है. इसका तात्पर्य है कि देश में तीन चौथाई बच्चे या तो हिंदी या भारतीय भाषा के माध्यम से पढ़ रहे हैं. इस लिए निराश होने की जरुरत नहीं है. हिंदी को सहानुभूति नहीं चाहिए. नए वैश्विक अर्थव्यवस्था में हिंदी अपने लिए बड़ा फलक बना चुकी है...
आप सबका कहना सही हो सकता है मगर मुझे जो लगा और जो मै महसूस करती हूँ मैने वो ही लिखा है। आंकडे तो हमेशा ही दूसरी तस्वीर पेश करते हैं और आंकडो के हिसाब से तो दृश्य ही बदल जाता है मगर कई बार होता सच मे बिल्कुल वैसा नही है हाँ कुछ हद तक होगा और कुछ जगह होगा मगर इसे पूरे देश की तस्वीर नही कहा जा सकता। अरुण जी मैने भी यही कहा है कि सरकार मे हिंदी मे कामकाज नही होता और आपने भी सरकार से इतर कहा है और उसी पर ही मेरी निगाह है। जहाँ तक आप कुछ राज्यो की बात कर रहे है तो मेरा भी यही कहना है कि हिंदी को आज तक हम अपने देश की राष्ट्रभाषा का दर्जा नही दिला पाये देखिये ना आप साउथ के राज्यो मे चले जाये तो वहाँ कितने लोग मिलेंगे आपको जो हिंदी जानते होंगे…………वहाँ हिंदी सिर्फ़ एडिशनल सब्जैक्ट के तौर पर पढाई जाती है तो कैसे कह दें कि सरकार इस तरफ़ कोई खास प्रयास करती है सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छुपी नही है वहाँ तो बुनियादी जरूरतें हासिल नही होतीं तो इस तरफ़ कितना ध्यान दिया जाता होगा आप समझ सकते हैं । हिंदी का प्रयोग वहाँ होता है मगर आप देखियेगा कभी किस तरह की हिंदी होती है जिसमे इतनी त्रुटियाँ होती हैं कि किसी भी हिंदी के जानकार को शर्म आ जाये………सिर्फ़ कुछ खास सरकारी स्कूलों को छोडकर । मैने बात सारे देश मे हिंदी की तस्वीर की की है ना कि किसी खास प्रदेश या कुछ हिस्से की। आप और हम जैसे कितने लोग होंगे जो अपने बच्चो को हिंदी का पूरा ज्ञान देते होंगे? बेशक हमारी भाषा है मगर इसी का प्रयोग देखिये तो सही हमारी संसद मे कितना होता है? या हमारे राजनेता कितना इस का प्रयोग करते हैं? मै ये नही कह रही कि आप गलत हैं मगर हिंदी को आज तक वो स्थान नही मिला जो उसे मिलना चाहिये था। इतने वर्षों की आज़ादी के बाद भी हिंदी अभी भी घिसट ही रही है। विदेशी भी हिंदी सिर्फ़ इसलिये सीखते हैं कि वो हमे समझ सकें और फिर हम पर कैसे वार किया जा सके। ये उनकी रणनीति होती है और हम लोग खुश हो लेते हैं कि देखो विदेशी भी हिंदी सीख रहे हैं। हमे इन सब बातो से ऊपर उठना होगा। आज देखिये कहीं भी आप जाये तो पूछा जाता है आपको इंग्लिश मे बात करनी आती है या नही और नही आती तो आपको नौकरी मिलना संभव नही हो पाता मगर कभी कोई हिंदी के लिये ऐसा नही करता। बेशक सर्वमान्य भाषा है अंग्रेजी मगर हिंदी इतनी उपेक्षित क्यों अपने ही देश मे……सिर्फ़ इतना ही कहना चाहा है मैने………मै तो आंकडों की बात ही नही करती। मै तो सिर्फ़ हिंदी की उस दशा को देख रही हूँ जो अभी भी अपने सर्वग्राह्य होने के मुकाम को ताक रही है। कुछ अन्यथा लगा हो तो माफ़ी चाहती हूँ क्योंकि अल्पज्ञानी हूँ ……ये सिर्फ़ मेरे विचार हैं जरूरी नही कि सभी सहमत हों ………और अच्छा है कम से कम इसी बहानें नयी जानकारियाँ मिलेंगी और हमारा ज्ञानवर्धन भी होगा।
हिंदी की स्थिति में सुधार आया है तो केवल जानने और बोलने तक ... वैसे अब कुछ सार्थक प्रयास हो तो रहे हैं जैसे प्रवेश परीक्षा में हिंदी को मान्यता मिल रही है ... लेकिन सभी क्षेत्र में नहीं .... जब तक हिंदी जीविकोपार्जन से नहीं जुडेगी तब तक हम गर्व नहीं कर सकते ..आंकडें कुछ भी कहें ... लेकिन अपने ही देश में अपनी ही भाषा को दूसरा दर्जा मिला हुआ है ..यह बात मन को कहीं सालती है ..
हिंदी को सरकार बढ़ावा तो दे रही है । लेकिन आपने सही कहा कि हिंदी भाषा का इस्तेमाल हमें भी विदेशियों के साथ गर्व से करना चाहिए । आंकड़ों पर नहीं जाया जा सकता ।
बधाई हो! बन्दना जी!! -- आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की लगाई है! यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बिलकुल सही आंकड़े तो कुछ और बताते हैं और हकीकत कुछ और है सार्थक लेख आपकी लेखन की तरफ इतनी लग्न देखकर बहुत खुशी होती है हर बार कुछ नया बहुत अच्छे दोस्त |
वंदना जी आपकी चिंता अकारण नहीं है। हिंदी की स्थिति में सुधार हुआ है परंतु जो स्थान उसे मिलना चाहिए जिसकी वह अधिकारिणी है वह उसे अभी तक प्राप्त नहीं हुआ हैै। आज भी केंद्रीय संस्थानों में हिंदी पखवाडा को एक मजाक के रूप या कहंे कि एक सामान्य औपचारिकता के रूप में निभाया जाता है। मात्र अंगे्रजी में वार्तालाप करने को ही श्रेष्ठता का मानदंड माना जाता है। पर स्थिति सुधर रही है हम आशा कर सकते हैं कि भविष्य सुनहरा होगा।
वंदना जि आपका आलेख प्रकाशित हुआ उसके लिया बधाई स्वीकारें यहाँ तो कथनी और करनी में जमीं असमान का अंतर होता है आंकड़े कुछ कहते हैं और हकीकत कुछ और होती है आभार
बेहद सार्थक लेखन .. बधाई के साथ शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंहिन्दी को उसका वास्तविक स्थान दिलवाने में सक्षम प्रयास के रुप में इस लेख को पाठकों तक पहुँचाने हेतु आभार सहित...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ..... हिंदी की सच्ची तस्वीर यही है.
जवाब देंहटाएंसार्थक और सामयिक विषय बड़े ही प्रभावी ढंग से उठाया।
जवाब देंहटाएंहिंदी से प्रेम होने के नाते माफ़ी के साथ कहना चाहूँगा कि आपका यह आलेख तथ्यों पर आधारित नहीं है. भारत में हिंदी की स्थिति इतनी दयनीय भी नहीं है... देश से तीन चौथाई हिस्से में सरकार और सरकार से इतर अधिकांश काम काज हिंदी में ही होता है. जिनमे प्रमुख हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार,झारखण्ड,छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड. यह देश का बहुत बड़ा हिस्सा है. देश में एक आकडे के अनुसार १३० मिलियन घरों में टी वी पहुँचता है और टीवी पर लगभग ८५% कंटेंट हिंदी या भारतीय भाषों में होता है. हिंदी ने पिछले दस वर्षों में मीडिया पर राज़ करना शुरू कर दिया है जिसमे दूरदर्शन के साथ साथ ने उभरते चैनलों का योगदान है. एन सी ई ए आर द्वारा किये गए सर्वेक्षण के अनुसार देश के लगभग ७२% बच्चे सरकारी स्कूल में जाते हैं और सरकार के प्रयास से इसमें २००८-०९ में ४% की बढ़ोतरी हुई है. इसका तात्पर्य है कि देश में तीन चौथाई बच्चे या तो हिंदी या भारतीय भाषा के माध्यम से पढ़ रहे हैं. इस लिए निराश होने की जरुरत नहीं है. हिंदी को सहानुभूति नहीं चाहिए. नए वैश्विक अर्थव्यवस्था में हिंदी अपने लिए बड़ा फलक बना चुकी है...
जवाब देंहटाएंआपकी तस्वीर हिंदी की सही नहीं है।
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिंदी के शुरु के चार पांच आलेख इस विषय पर लिख चुका हूं, इसलिए ज़्यादा नहीं कहूंगा।
आदरणीय @अरुण चन्द्र रॉय जी ,@मनोज कुमार जी
जवाब देंहटाएंआप सबका कहना सही हो सकता है मगर मुझे जो लगा और जो मै महसूस करती हूँ मैने वो ही लिखा है। आंकडे तो हमेशा ही दूसरी तस्वीर पेश करते हैं और आंकडो के हिसाब से तो दृश्य ही बदल जाता है मगर कई बार होता सच मे बिल्कुल वैसा नही है हाँ कुछ हद तक होगा और कुछ जगह होगा मगर इसे पूरे देश की तस्वीर नही कहा जा सकता। अरुण जी मैने भी यही कहा है कि सरकार मे हिंदी मे कामकाज नही होता और आपने भी सरकार से इतर कहा है और उसी पर ही मेरी निगाह है। जहाँ तक आप कुछ राज्यो की बात कर रहे है तो मेरा भी यही कहना है कि हिंदी को आज तक हम अपने देश की राष्ट्रभाषा का दर्जा नही दिला पाये देखिये ना आप साउथ के राज्यो मे चले जाये तो वहाँ कितने लोग मिलेंगे आपको जो हिंदी जानते होंगे…………वहाँ हिंदी सिर्फ़ एडिशनल सब्जैक्ट के तौर पर पढाई जाती है तो कैसे कह दें कि सरकार इस तरफ़ कोई खास प्रयास करती है सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छुपी नही है वहाँ तो बुनियादी जरूरतें हासिल नही होतीं तो इस तरफ़ कितना ध्यान दिया जाता होगा आप समझ सकते हैं । हिंदी का प्रयोग वहाँ होता है मगर आप देखियेगा कभी किस तरह की हिंदी होती है जिसमे इतनी त्रुटियाँ होती हैं कि किसी भी हिंदी के जानकार को शर्म आ जाये………सिर्फ़ कुछ खास सरकारी स्कूलों को छोडकर ।
मैने बात सारे देश मे हिंदी की तस्वीर की की है ना कि किसी खास प्रदेश या कुछ हिस्से की। आप और हम जैसे कितने लोग होंगे जो अपने बच्चो को हिंदी का पूरा ज्ञान देते होंगे? बेशक हमारी भाषा है मगर इसी का प्रयोग देखिये तो सही हमारी संसद मे कितना होता है? या हमारे राजनेता कितना इस का प्रयोग करते हैं?
मै ये नही कह रही कि आप गलत हैं मगर हिंदी को आज तक वो स्थान नही मिला जो उसे मिलना चाहिये था। इतने वर्षों की आज़ादी के बाद भी हिंदी अभी भी घिसट ही रही है। विदेशी भी हिंदी सिर्फ़ इसलिये सीखते हैं कि वो हमे समझ सकें और फिर हम पर कैसे वार किया जा सके। ये उनकी रणनीति होती है और हम लोग खुश हो लेते हैं कि देखो विदेशी भी हिंदी सीख रहे हैं।
हमे इन सब बातो से ऊपर उठना होगा। आज देखिये कहीं भी आप जाये तो पूछा जाता है आपको इंग्लिश मे बात करनी आती है या नही और नही आती तो आपको नौकरी मिलना संभव नही हो पाता मगर कभी कोई हिंदी के लिये ऐसा नही करता। बेशक सर्वमान्य भाषा है अंग्रेजी मगर हिंदी इतनी उपेक्षित क्यों अपने ही देश मे……सिर्फ़ इतना ही कहना चाहा है मैने………मै तो आंकडों की बात ही नही करती। मै तो सिर्फ़ हिंदी की उस दशा को देख रही हूँ जो अभी भी अपने सर्वग्राह्य होने के मुकाम को ताक रही है।
कुछ अन्यथा लगा हो तो माफ़ी चाहती हूँ क्योंकि अल्पज्ञानी हूँ ……ये सिर्फ़ मेरे विचार हैं जरूरी नही कि सभी सहमत हों ………और अच्छा है कम से कम इसी बहानें नयी जानकारियाँ मिलेंगी और हमारा ज्ञानवर्धन भी होगा।
हिंदी की स्थिति में सुधार आया है तो केवल जानने और बोलने तक ... वैसे अब कुछ सार्थक प्रयास हो तो रहे हैं जैसे प्रवेश परीक्षा में हिंदी को मान्यता मिल रही है ... लेकिन सभी क्षेत्र में नहीं .... जब तक हिंदी जीविकोपार्जन से नहीं जुडेगी तब तक हम गर्व नहीं कर सकते ..आंकडें कुछ भी कहें ... लेकिन अपने ही देश में अपनी ही भाषा को दूसरा दर्जा मिला हुआ है ..यह बात मन को कहीं सालती है ..
जवाब देंहटाएंहिंदी को सरकार बढ़ावा तो दे रही है । लेकिन आपने सही कहा कि हिंदी भाषा का इस्तेमाल हमें भी विदेशियों के साथ गर्व से करना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंआंकड़ों पर नहीं जाया जा सकता ।
बधाई हो! बन्दना जी!!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की लगाई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
सच्ची अर्थों में एक अनुकरणीय प्रयास . माननीय अटल बिहारी बाजपेयी जी ने कहा था " बनने चली विश्व की भाषा , अपने घर में दासी " काश कुछ बदल जाये
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही आंकड़े तो कुछ और बताते हैं और हकीकत कुछ और है सार्थक लेख आपकी लेखन की तरफ इतनी लग्न देखकर बहुत खुशी होती है हर बार कुछ नया बहुत अच्छे दोस्त |
जवाब देंहटाएंवंदना जी आपकी चिंता अकारण नहीं है। हिंदी की स्थिति में सुधार हुआ है परंतु जो स्थान उसे मिलना चाहिए जिसकी वह अधिकारिणी है वह उसे अभी तक प्राप्त नहीं हुआ हैै। आज भी केंद्रीय संस्थानों में हिंदी पखवाडा को एक मजाक के रूप या कहंे कि एक सामान्य औपचारिकता के रूप में निभाया जाता है। मात्र अंगे्रजी में वार्तालाप करने को ही श्रेष्ठता का मानदंड माना जाता है। पर स्थिति सुधर रही है हम आशा कर सकते हैं कि भविष्य सुनहरा होगा।
जवाब देंहटाएंbahut sundar lekhan..bahut bahut badhai vandna ji...
जवाब देंहटाएंNice post .
जवाब देंहटाएंमुग़ले आज़म और उमराव जान को भी हिंदी फ़िल्म ही का प्रमाण पत्र दे देते हैं।
क्या है हिंदी ?
कहां है हिंदी ?
शुक्रिया !
तर्क मज़बूत और शैली शालीन रखें ब्लॉगर्स :-
हमारा संवाद नवभारत टाइम्स की साइट पर ,
दो पोस्ट्स पर ये कुछ कमेंट्स हमने अलग अलग लोगों के सवालों जवाब में दिए हैं। रिकॉर्ड रखने की ग़र्ज़ से इन्हें एक पोस्ट की शक्ल दी जा रही है।
बहुत अच्छा आलेख।
जवाब देंहटाएंबातें विचारणीय हैं।
nice post ! Congrats Vandana ji.
जवाब देंहटाएंवंदना जि आपका आलेख प्रकाशित हुआ उसके लिया बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंयहाँ तो कथनी और करनी में जमीं असमान का अंतर होता है आंकड़े कुछ कहते हैं और हकीकत कुछ और होती है
आभार
सार्थक लेख ... मैंने भी पढ़ा इसे गर्भनाल में ... बधाई इस प्रकाशन में ...
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन... शुभकामनाएं...
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