यूँ तो रोज किसी ना किसी को
बिखरते देखा है मैंने
मगर कभी देखा है
खुद को बिखरते
टूटते किसी ने ?
आजकल रोज का नियम है
खुद को बिखरते देखना
देखना अभी कितनी जगह
और बाकी है
हवाओं के लिए
किन किन दरारों से
रिसने की बू आती है
इबादत की जगह बदल दी है मैंने
शायद तभी देवता भी
मंदिर में नहीं रहते
सबको एक ही काम सौंपा है
खुदा ने शायद
हर मुमकिन कोशिश करना
कोई ना कोर कसर रखना
बहुत बुलंदियों को छू चुकी है ईमारत
अब इसे ढहना होगा
मिटटी में मिलना होगा
बिखराव भी तो एक प्रक्रिया है
निरंतर बहती प्रक्रिया
प्रकृति का एक अटल हिस्सा
फिर उससे मैं कैसे अछूती रहती
सृष्टि के नियम का
कैसे ना पालन करती
मगर पल पल बिखरना
और फिर जुड़ना और फिर बिखरना
इतना आसान होता है क्या
एक बार मिटना आसान होता है
मगर पल पल का बिखराव
दिमागी संतुलन खो देता है
अब कोई कैसे और कब तक
खुद को संभाले
दिल के टूटने को तो
जज़्ब कर भी ले कोई
मगर जब वार दिमाग पर होने लगे
अस्तित्व की सिलाइयां उधड़ने लगें
और डूबने को कोई सागर भी ना मिले
बताओ कौन से सितारे में लपेटूँ बिखरे अस्तित्व को ?
बिखरते देखा है मैंने
मगर कभी देखा है
खुद को बिखरते
टूटते किसी ने ?
आजकल रोज का नियम है
खुद को बिखरते देखना
देखना अभी कितनी जगह
और बाकी है
हवाओं के लिए
किन किन दरारों से
रिसने की बू आती है
इबादत की जगह बदल दी है मैंने
शायद तभी देवता भी
मंदिर में नहीं रहते
सबको एक ही काम सौंपा है
खुदा ने शायद
हर मुमकिन कोशिश करना
कोई ना कोर कसर रखना
बहुत बुलंदियों को छू चुकी है ईमारत
अब इसे ढहना होगा
मिटटी में मिलना होगा
बिखराव भी तो एक प्रक्रिया है
निरंतर बहती प्रक्रिया
प्रकृति का एक अटल हिस्सा
फिर उससे मैं कैसे अछूती रहती
सृष्टि के नियम का
कैसे ना पालन करती
मगर पल पल बिखरना
और फिर जुड़ना और फिर बिखरना
इतना आसान होता है क्या
एक बार मिटना आसान होता है
मगर पल पल का बिखराव
दिमागी संतुलन खो देता है
अब कोई कैसे और कब तक
खुद को संभाले
दिल के टूटने को तो
जज़्ब कर भी ले कोई
मगर जब वार दिमाग पर होने लगे
अस्तित्व की सिलाइयां उधड़ने लगें
और डूबने को कोई सागर भी ना मिले
बताओ कौन से सितारे में लपेटूँ बिखरे अस्तित्व को ?
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंoh drdnaak khudaa kre kabhi kuchh na bikhre or jo bikhr gya hai simat kr aek khubsurat kamyaabi ke maala me bandh jaaye ....aamin .akhtar khan akela kota rajstan
जवाब देंहटाएंएक चादर जिसमे अनुभूतियों के सितारे टंके हों खालिश खुशनुमा अनुभूतियों के वही समेत लीजिये सुकून मिलगे रूह को . भावपूर्ण काव्यांजलि बधाई
जवाब देंहटाएंयूँ तो रोज किसी ना किसी को
जवाब देंहटाएंबिखरते देखा है मैंने
मगर कभी देखा है
खुद को बिखरते टूटते किसी ने ?
इस रचना का सूफ़ियाना रंग लाजवाब है। इस बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति के लिए बधाई।
पर समेटना तो होगा ही।
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंईद मुबारक आप एवं आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ.एक ब्लॉग सबका
ईद पर विशेष अनमोल वचन
बहुत सुन्दर भाव पूर्ण अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंखुद को बिकहरते टुटते देखने वाला तो कोई पहुंचा हुआ फ़कीर औलिया ही हो सकता है, बहुत गहन भाव.
जवाब देंहटाएंरामराम.
ईद मुबारक आप एवं आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ...सुन्दर भाव पूर्ण रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत गहन अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंसादर...
खुद के बिखराव को समेटने की कश्मकश दिख रही है इस रचना में ... गहन भाव लिए अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंsunda rachna...
जवाब देंहटाएंvery nice.......keep it up.
जवाब देंहटाएंBahut khub !
जवाब देंहटाएंगहन विचार .... बेहतरीन रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंbahut adbhut rachna. shubhkaamnaayen Vandana ji.
जवाब देंहटाएंएक बार मिटना आसान होता है
जवाब देंहटाएंमगर पल पल का बिखराव
दिमागी संतुलन खो देता है...
और ऐसा ही असंतुलन
अपने इर्द-गिर्द भी देखा है मैंने..!
कभी किसी में !!
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंटूटते हुवे सितारों में खुद का अस्तित्व समेटना मुश्किल होता है ... बिखर जाता है वो तारे के साथ ...
जवाब देंहटाएंवन्दना जी नमस्कार सुन्दर भाव है विखराव की भी उत्तम व्याख्या।मेरे ब्लाग पर भी आपका स्वागत है।
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