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शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

आहत मन

आओ लहू का बीज बोयें
लहू का खाद पानी दें
और लहू की ही खेती करें
अब रगो मे लहू का उफ़ान कहाँ
वो जमीन आसमान कहाँ
बन्जर मरुस्थलो मे 
अब खिलते कँवल कहाँ 
चलो यारो थोडा तेरा 
थोडा मेरा 
कुछ लहू बहाया जाये
एक लहू का दरिया बनाया जाए

सीनो मे अब दिल कहाँ 
जज़्बातो मे वो सिहरन कहाँ
अहसासो मे वो अपनापन कहाँ
चलो यारो ज़िन्दा लाशो को
फिर से दफ़नाया जाये
कुछ तेरा और कुछ मेरा
थोडा लहू बहाया जाए

सरहदो मे अब फ़ासले कहाँ
आने जाने मे अब रुकावटें कहाँ
हर तरफ़ दहशतगर्दी का आलम
चलो फिर से इस बेजान शहर को
कब्रिस्तान बनाया जाए
यहाँ ज़िन्दा रूहो को दफ़नाया जाए
कुछ तेरी कुछ मेरी
लहू की भूख मिटायी जाए
ऐसे इक दूजे को काटा जाए
फिर ना कोई प्यास रहे
फिर ना कोई आस रहे
कहीं ना कोई विश्वास रहे
चलो यारो आओ इस देश को अपने
लहू का समन्दर बनाया जाए

जब ज़िन्दा ही चिताये जलती हैं
इंसान हर पल मरता हो
आतंक , भ्रष्टाचार का बोलबाला हो
आम आदमी के नसीब मे तो
सिर्फ़ भुखमरी का पाला हो
पैसे से जहाँ सबकी भूख मिटती हो
गद्दारो से धरती पटी पडी हो
जहाँ लाशें भी बिकती हों
और इंसानियत पर 
बेईमानी , गद्दारी की
दीवारें चिनती हों
जहाँ मौत ज़िन्दगी से सस्ती हो
आदमी आदमी का दुश्मन हो
फिर क्यो न ऐसे देश मे यारो
अपनो का लहू बहाया जाए
खुद को स्वंय मिटाया जाए

जब मौत हर पासे ताण्डव करती हो
तो क्यों ना उसे गले लगाया जाए
इस बेबस लाचार कमजोर सभ्यता 
को मिटाया जाए
प्रलय का दीदार कराया जाए
कुछ इस तरह यारों 
आखिरी कर्ज़ चुकाया जाए
एक नये जहान, 
एक नयी सभ्यता 
एक नयी जमीन 
और इंसानियत की खातिर
 वर्तमान को ज़मींदोज़ किया जाये
भविष्य को नया सूरज दिया जाए






































































33 टिप्‍पणियां:

  1. भविष्‍य को नया सूरज दिया जाये ...

    बहुत ही गहन भाव समेटे ...।

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  2. दुनिया में आज के हालत को लेकर लिखी गई बढ़िया कविता... बहुत सुन्दर

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  3. वाह,
    मन को उद्वेलित कर गई कविता....वन्दना जी

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  4. देश की व्यवस्था पर कठोर और साथ ही मार्मिक प्रहार किया है ... जब उम्मीदें नाउम्मीदी में बदलने लगती हैं तब यूँ ही आहत मन से कामना की जाती है ... सशक्त रचना

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  5. सच कहा है आपने अब लहू से सींचा जा सकता है इस धरती को.......सुन्दर पोस्ट|

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  6. वन्दना जी
    बहुत ही सुन्दर और लाजवाब कविता लिखी है आपने
    धन्यवाद्

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  7. समग्र चिंतन...
    सार्थक संकेत...
    सादर...

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  8. आहत मन सुनहरे भविष्य की कल्पना साकार करना चाहता है ..कलुषित वर्तमान की बेजारी शब्दों में खूब उतारी !

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  9. सुन्दर चिंतन से ओतप्रोत कविता... उद्वेलित कर रही है आपकी रचना...

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  10. मन की व्यथा को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया आपने....

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  11. वाकई ! सीनों में अब दिल कहाँ ??
    शुभकामनायें !!

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  12. विचारोत्तेजक रचना.
    वाह ,क्या बात है.

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  13. गहन अभिव्यक्ति.....सकारात्मक भावों का आव्हान लिए

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  14. बढ़िया कविता....सुन्दर पोस्ट|

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  15. hum sabhi bloger dosto me sabse acchi kavita aapki hoti hai aabhar

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  16. आहत मन की पुकार कभी तो सुनी जाएगी...आमीन..

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  17. रक्षाबंधन की आपको बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  18. रक्षाबन्धन के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  19. ठंडे ख़ून में उबाल लाने के लिए आपकी हूंकार सामयिक है।

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  20. बहुत सुंदर रचना,

    दुष्यंत कुमार की दो लाइनें याद आ रही हैं..


    कहां तो तय था चिरांगां हर एक घर के लिए
    यहां मयस्सर नहीं चिराग, शहर के लिए।

    आज ये दीवार पर्दे की तरह हिलने लगी,
    लेकिन शर्त थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

    एक पंक्ति और

    तेरे सीने में ना सही तो मेरे सीने में सही,
    हो कहीं भी आग , लेकिन आग जलनी चाहिए।

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  21. मन को उद्वेलित करती बहुत सटीक और उत्कृष्ट प्रस्तुति...आभार

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  22. एक नये जहान,
    एक नयी सभ्यता
    एक नयी जमीन
    और इंसानियत की खातिर
    वर्तमान को ज़मींदोज़ किया जाये
    भविष्य को नया सूरज दिया जाए
    bahut hi sundar sandesh aur soch ,rakhi parv ki badhai le

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  23. आह! ह्रदय में एक टीस उठी पढकर इन शब्दों को अभी हम क्या हैं और कहाँ पहुचना है ये होंसला तो बढ़ेगा और बढ़ेगा.....

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  24. हां,कुछ कर गुजरने का यह सही वक्त है। अन्यथा,इतिहास हमें शायद ही माफ़ करे।

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  25. सच को प्रतिबिम्बित करती बेहतरीन रचना...

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  26. chalo yaro jinda lashon ko

    fir se dafnaya jae........sundar

    bhavvibhor kar dene wali rachana ke

    lie bahut2 badhi.

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