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गुरुवार, 6 जनवरी 2011

आत्ममंथन की प्रक्रिया में…………………(3)

क्या आत्ममंथन इतना सरल होता है ? पीछे जो चिन्ह छोड़ आई हूँ उसके निशाँ एक काले साये की तरह पीछे पीछे आ जाते हैं ..........सोचती हूँ ना याद  करूँ इन्हें मगर कुछ साये ऐसे होते हैं जो आप चाहो या ना चाहो स्वयं आकर लिपट जाते हैं ...........क्या मैं एक खिलोने के अलावा कुछ नहीं ? क्या मुझे सबकी ख़ुशी के लिए जीना चाहिए चाहे इसके लिए मेरी मर्यादा ही ध्वस्त  क्यूँ ना हो जाये ?
 आज कुछ याद आ गया .........कृष्ण का प्रेम कहो या गोपियों का प्रेम मगर कुछ तो था वो भी ........सोच रही थी कि हम कहते हैं कृष्ण तुम निष्ठुर हो , निर्मम हो .........गोपियों के निस्स्वार्थ प्रेम को नहीं समझे अगर समझे होते तो उन्हें यूँ तन्हा ना छोड़ गए होते या कहो राधा को अपना लिया होता या कहो राधा से विवाह कर लिया होता..........मगर क्या सम्पूर्णता सिर्फ शादी में ही प्राप्त होती है ? ऐसे ना जाने कितने प्रश्न व्यथित करते थे ?और देखो ना आज उसी मोड़ पर ले आये हो कृष्ण तुम मुझे..........अब कैसे खुद का आत्मविश्लेषण करूँ ? ............जिधर देखती हूँ तुम्हारा ही कोई ना कोई प्रतिरूप मुझे चाहता प्रतीत होता है ..........मुझे भी नहीं मेरे ख्यालों को , मेरे विचारों को , मेरी भावनाओं को ..........कभी कभी लगता है जैसे अगर उसके विचार ना सुने तो शायद वो ज़िन्दा ही ना रहे ..........आह ! कृष्ण ऐसा लगता है जैसे तुम मुझे कुछ समझा रहे हो ..........मेरे माध्यम से कुछ कहलवाना चाहते हो .........प्रेम तो सिर्फ राधा थी मगर वो तुमसे कब जुदा थी इसलिए सबको यही लगता रहा कि तुम निष्ठुर हो जबकि वो तुममे ही तो समायी थी ...........ऐसा ही अनुभव शायद मुझे करा रहे हो ...........है ना ! मुझे भी सब निष्ठुर , निर्मम कहते हैं............लेकिन प्रीत की डोर तो सिर्फ एक से ही बंधती है तो फिर कैसे सारे जहाँ को समेटूं स्वयं में .........मैं शायद आज समझी हूँ तुम्हारे नि:संग रहने का राज़ ................. मगर ये सबको कैसे समझाऊँ?

ये तो सिर्फ आत्मविश्लेषण का एक पड़ाव भर है ............आगत की चिंता नहीं विगत की अब परवाह नहीं मगर वर्तमान भी जब बोझिल होने लगे तो कैसे जिए कोई ?.............वर्तमान की हर कड़ी मुझमे जुड़ना चाहती है मगर मैं उसे जोड़ नहीं पाती हूँ ये कैसी उहापोह में फँस गयी हूँ ..........कैसी कशमकश है .........है ना ? क्या चाहती है अब ज़िन्दगी मुझसे? पलायन करने का शौक नहीं है सामना कर भी रही हूँ मगर तब भी लगता है कहीं भटक रही हूँ ..........ये जो आंतरिक सूक्ष्म विश्लेषण होते हैं ना ये मुझे नोचने लगते हैं जैसे ही कोई उजाले की किरण दस्तक देने लगती है .........कुछ भयावह , बेजान आवाजें सुनने लगती हूँ जो मुझे मुझसे छीनने लगती हैं...........अब इन आवाजों से मुक्त कैसे होऊं? जिन्हें सिर्फ मैं ही सुन सकती हूँ ...........सब कुछ तितर - बितर हो चुका है मेरा पूरा अस्तित्व ध्वस्त  हो रहा है ...........कितनी गहन है ना आत्ममंथन की ये प्रक्रिया ...........कोई नव निर्माण नहीं सिर्फ विध्वंस ही विध्वंस ............और उसके बाद कुछ अवशेष जिनका कोई संग्रहकर्ता नहीं ...........नहीं बनते ऐसे अवशेष किसी संग्रहालय की धरोहर .............सुना था मंथन के बाद पहले विष निकलता है और उसके बाद अमृत मगर यहाँ तो सिर्फ विष ही विष निकला जिसकी अग्नि में सब स्वाहा हो गया ..............अवशेष ही अपनी किस्मत पर आँसू बहाते मिले ..............लगता है प्रक्रिया जारी रहेगी ..............अभी पूर्ण आत्ममंथन नहीं हुआ................   

क्रमश:……………

28 टिप्‍पणियां:

  1. आत्ममंथन बहुत कुछ स्पष्ट करता है.... जैसे ये ख्याल क्या शादी ही सम्पूर्णता है !
    इस पर गहन परिचर्चा हो सकती है

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  2. बहुत वाजिब नुक्ताचीं किया है आपने वंदना जी आपमंथन का.... यह अभी क्या कभी पूर्ण नहीं होता।

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  3. atmamanthan mein sabse pahle vidhwans hi aata hai ... nav nirman to tab hoga jab pale ke sab khatam ho jayega ...
    Jaari rakhiye ...

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  4. बहुत अच्छा चल रहा है ये आत्ममंथन का सफर...जारी रखिये इसे..

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  5. आत्ममंथन के बहाने बहुत से गंभीर सवाल उठा रही हैं वंदनाजी.... बढ़िया श्रंखला जा रही है...

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  6. आत्‍ममंथन के लिये विचारणीय प्रस्‍तुति ...बहुत ही सुन्‍दरता से आप इसे क्रम दे रही हैं सार्थक प्रयास बधाई।

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  7. देखना है इस मंथन में निकलता क्या है ...बढ़िया चल रहा है.

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  8. अच्छी प्रस्तुति |बधाई
    आशा

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  9. बहुत अच्छा चल रहा है ये आत्ममंथन का सफर| बधाई।

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  10. "सुना था मंथन के बाद पहले विष निकलता है और उसके बाद अमृत मगर यहाँ तो सिर्फ विष ही विष निकला जिसकी अग्नि में सब स्वाहा हो गया"
    शायद इस स्वाहा के बाद ही तो अमृत की आवश्यकता होगी. आस अभी बाकी है ....

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  11. आत्ममंथन कुछ सुलझाता है, कुछ उलझाता है पर दिशा दिखा जाता है।

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  12. आत्‍ममंथन के लिये विचारणीय प्रस्‍तुति,
    बहुत अच्छा चल रहा है ये सफर, बधाई...

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  13. आत्ममंथन की प्रक्रिया ...दुरूह कार्य शुरू किया है आपने।

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  14. साथ साथ चल रहे हैं हम आपके आत्ममंथन की प्रक्रिया में !

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  15. ईश्वर करे अंत में "अमॄत" ही निकले और अवश्य ही निकलेगा ऐसी आशा है....

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  16. निसंदेह ।
    यह एक प्रसंशनीय प्रस्तुति है ।
    धन्यवाद ।
    satguru-satykikhoj.blogspot.com

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  17. समय समय पर आत्ममंथन बहुत जरूरी है। सदैव कुछ सकारात्मक ही उभर कर आता है सामने।

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  18. वंदना जी,

    कितने बेबस बन जाते हैं हम.......हमारा सुख और हमारा दुःख दुसरे से जुड़ा है इन सब के बिच हम तो कहीं खो ही जाते हैं.....बहुत ही सुन्दर पोस्ट है आपकी.....शुभकामनायें|

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  19. वास्तव में रश्मि जी ने साफ़ संकेत दे ही दिया है

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  20. कभी कभी .. आत्ममंथन अंदर से हिला जाता है.. कभी कभी खुशिया दे जाता है .. अलग अलग विषय से सोचें तो अलग अलग परिणाम होते है... और कभी कभी परिणाम के सर और पैर नहीं होते ..वो गोल वृत्ताकार में घूमते रहते है कोई हल नहीं होता... आपको हल मिले शुभकामनाएं... आपकी रचना आज चर्चामंच पर है.. धन्यवाद

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  21. मन में चल रहे विचार प्रवाह को सुन्दर रूप में पेश किया है आपने!

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  22. आत्ममंथन पर सुन्दर अभिव्यक्ति .... आभार

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  23. आत्ममंथन की अभिव्यक्ति बहुत स्पष्ट है। दिशा अवश्य मिलेगी।

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  24. It is vary good write up by VANDANA. Self- analysis is really vary painful process.

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