आज आत्मावलोकन करने बैठी हूँ और मन के आईने में खुद को ढूँढ रही हूँ ...........कहाँ हूँ मैं ? मैं क्या थी और आज क्या हूँ?..........इसी उहापोह में भटक रही हूँ ...........क्या हुआ है मुझे ..........कैसे इतना बदल गयी, कहाँ मेरी सारी संवेदनाएं स्वाहा हो गयीं ...........कौन सा यज्ञ किया जिसने मेरी मानवीय , चंचल , भयभीत हिरनी सी कोमल भावनाओं को तिरोहित किया ............क्या जीवन यज्ञ इतना कठोर होता है कि हर संवेदना को ठूंठ बना देता है जिस पर कभी कोमल कुसुम पुष्पित , पल्लवित हुए थे उस शाख को वक्त और हालात की अग्नि में भस्मीभूत कर देता है और फिर एक बेसहारा , बदरंग , निर्बल , निसहाय ठूंठ का अवशेष मूँह चिढ़ाता स्वयं का अवलोकन कर रहा होता है ............कभी याद आता है वो वक्त जब सिर्फ उमंगो के रथ पर सवार किसी शाही राजकुमारी सी भावनाएं प्रवाहित होती थीं............जैसे कोई चंचल शोख नदिया बेतकल्लुफ सी बही जा रही हो अपने अन्दर ना जाने कितने भीने भीने अरमानो को संजोये ...........फिर क्यूँ ऐसे हालात के पत्थर राह में आते गए जो उसकी उमंगों को , उसकी कुंवारी अभिलाषाओं को , उसकी निश्छल मुस्कान को बर्दाश्त ना कर पाए और उसे भी एक उमगती .चंचल हिरनी से वक्त की सलीब पर एक निष्ठुर व् निर्मम संवेदनहीन तूफ़ान बना दिया .............क्या विश्वासघात, धोखे और प्रपंच इन्सान की इस तरह निर्मम हत्या कर देते हैं कि वक्त के आईने में वो खुद कोभी नहीं पहचान पाता ...........कैसे संवेदनाएं इतनी क्रूर हो जाती हैं कि अपने भी पराए नज़र आने लगते हैं या कहो अपनों में से भी कोई अपना मिलता ही नहीं ...........सब रसहीन , रंगहीन , गंधहीन बासी फल ही नज़र आते हैं जिनमे कहीं आत्मीयता का दर्शन होता ही नहीं सब अपनी जरूरतों के पुतले ही नज़र आते हैं ..............शायद इसीलिए आज आत्मावलोकन की जरूरत पड़ गयी ...........मगर मुझे इस सफ़र में "मैं" कहीं नहीं मिली ..........वो जो दुनियादारी जानती ही नहीं थी ..........वो जो सबको अपना मानती थी ...............वो जिसका दिल हर प्यार भरे दिल के लिए धड़कता था ...............वो जो अपने लिए ना जीकर दूसरे के लिए जीती थी और सबकी ख़ुशी में खुश हो लेती थीआज वो कहीं खो गयी है ना जाने कौन से रसातल में उसका वजूद समाहित हो गया है कि अब ढूँढ रही है मगर सूखे बेजान मुर्दा अहसास कब ज़िन्दा होते हैं...........देखा क्या थी और क्या बन गयी हूँ.....शायद इम्तिहान अभी और बाकी हैं …………खुद से मिलने तक ...............
क्रमशः................
बाप रे ! मेरे को डर लगता है, ऐसा खतरनाक अध्यात्म। बहुत गहन बात लिखी है आपने।
जवाब देंहटाएंशायद इम्तिहान अभी और बाकी हैं………खुद से मिलने तक
जवाब देंहटाएंऔर खुद से मिलने का यह प्रयास अनवरत जारी रहना चाहिए .............अन्यथा खुद को दुनिया के बजूद में तलाश करते- करते ...आत्मिक रूप में खुद से दूर हो जायेंगे हम .....बहुत बढ़िया श्रंखला ..शुक्रिया
जो अपने लिए ना जीकर दूसरे के लिए जीती थी और सबकी ख़ुशी में खुश हो लेती थीआज वो कहीं खो गयी है ना जाने कौन से रसातल में उसका वजूद समाहित हो गया है कि अब ढूँढ रही है मगर सूखे बेजान मुर्दा अहसास कब ज़िन्दा होते हैं...........देखा क्या थी और क्या बन गयी हूँ.....शायद इम्तिहान अभी और बाकी हैं ………
जवाब देंहटाएं--
इस परीक्षाकाल से तो सभी गुजर रहे हैं!
आपका आत्मविश्लेषण बहुत बढ़िया रहा!
... saarthak charchaa ... jaaree rakhen !!
जवाब देंहटाएंन जाने किसने
जवाब देंहटाएंओस की नमी चुरा ली
न जाने कहाँ खो गयी
मुझे "मैं"नहीं मिल रही.
आपके ये चार पंक्तियाँ आप द्वारा लिखी बाकी बातों का सार लगीं.
behad sundar lekh... ye vakai me haqiqat hai kee admi dhokhe fareib kee baar baar kee chot se sanvedanheen ho sakta hai.. jab khud ke bas me kuch nahi hota to ye insaani man is tarah se react karta hai... fir bhi insaan ko apni khusiyo ke liye aur auro kee khusiyon ke liye khud kee muskaan ko bachaye rakhna hota hai.. :))
जवाब देंहटाएंगम्भीर आत्म मंथन
जवाब देंहटाएंसवालों के जवाब खुद आपने दे ही दिए हैं ...वक़्त की मार ,ज़माने की रफ़्तार हमसे हमारा वजूद छीन लेती है ...बहुत मुश्किल होता है उस तरह जीना जो हम भीतर से नहीं है ...
जवाब देंहटाएंविचारों का यह प्रवाह आंदोलित कर रहा है ...
वन्दना जी बहुत अच्छा लिखा है लेकिन नैराश्यपूर्ण है। कभी सूरज बादलों की ओट में आ जाता है तो इसका मतलब यह नहीं कि सूरज का तेज कहीं खो गया है।
जवाब देंहटाएंना जाने किसने ओस की नमी चुरा ली ...बहुत ही सुन्दरता से यह आत्ममंथन की प्रस्तुति ...।
जवाब देंहटाएंis manthan mein kankad bhi milte hain aur moti bhi
जवाब देंहटाएंआपका "मै" कहीं खोया नही है,यही "मै" ही तो है जो आपके "मै" को अभी भी जीवित रखे है। बहुत ही गहन मंथन है आपका ।
जवाब देंहटाएंना जाने किसने
जवाब देंहटाएंओस की नमी चुरा ली
ना जाने कहाँ खो गयी
मुझे " मै " नही मिल रही
aapke 'main' ko hamne larajte hue sabdo me dekha hai,,,,,,aur wo bhi bahuto baar.... aapke "main" ke prashanshak bhi blog ke duniya me sayad sabse adhik hain...:) fir aisee baat kyun????
मन का अवलोकन आवश्यक है, कई रत्न निकल आते हैं।
जवाब देंहटाएंaisa laga ki aapne mere sabd likh diye hain.....mujhe lagta hai hamari tarah aur bhi bahut hain....."MANN KI BAAT"....yeh manjusha se bahar nikale ki souch bhar hai....
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन की खूबसूरत प्रस्तुति ,अच्छा लग रहा है पढ़ना.
जवाब देंहटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएंBhavapoorn abhivyakti...abhaar
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट.
जवाब देंहटाएंYeah,कभी कभार खुद के अन्दर झाँक अतीत को टटोलना अच्छा लगता है !
जवाब देंहटाएंbahut gahan atmavalokan se guzar rahi hain aap ... ummeed hai is khoj ke us paar aapko apni purana swayam se mulakat ho jayegi ...
जवाब देंहटाएंवंदना जी बहुत बहुत धन्यवाद मेरे जैसे नव ब्लॉगर को महारथी बलॉगर परिवार में अपनाने का . आपका लेखन बहुत अच्छा है स्वयं की तलाश बड़े बड़े योगी , तपस्वी नहीं कर पाए फिर हम और आप तो साधारण मनु्ष्य हैं । लेकिन आप अपने भीतर ज़रा एक बार प्यार से झांके आपको अपने भीतर एक बहुत सुंदर वंदना मिलेगी । चर्चा मंच में शामिल करने और मेरा दुख साझा करने के लिए धन्यवाद . स्नेह सहित , सर्जना
जवाब देंहटाएंIs aatm-manthan matlab hai,ki,tum abhi bhee asali 'mai' se wabasta ho!
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन की खूबसूरत प्रस्तुति|बहुत बढ़िया श्रंखला| शुक्रिया|
जवाब देंहटाएंbahut sahi likha hai.....
जवाब देंहटाएंbahut gahraaee hai...
.बहुत ही सुन्दरता से यह आत्ममंथन की प्रस्तुति ...।
जवाब देंहटाएंन जाने किसने
जवाब देंहटाएंओस की नमी चुरा ली
न जाने कहाँ खो गयी
मुझे "मैं"नहीं मिल रही.
बंदना जी, बहुत ही अच्छा आत्म मंथन चल रहा है और हमें अमृत सामान सुदर एहसास मिल रहें है...
जारी रखिये अपनी खोज जिस दिन आप खुद के पास पूरी तरह आ जायेंगे तब खुद से मिल पायेंगे। खुद को पाने के लिये सब कुछ खोना पडता है। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंमगर मुझे इस सफ़र में "मैं" कहीं नहीं मिली
जवाब देंहटाएंऔर शायद इस 'मैं' से मिल पाना इतना आसान भी तो नहीं है.
वंदना जी कबीर को याद किजिए उन्होने कहा है --
जवाब देंहटाएंजब 'मैं' था तब हरि नहीं , जब हरि हैं तब 'मैं' नहीं --उनकी बात बहुत गहरी है मैं तो चाहती हूं 'मैं 'रहूं ही ना बल हरि ही रहें
वंदना जी,
जवाब देंहटाएंबहुत बड़ा जिगर चाहिए इस आत्मंथन के लिए ......मेरा सलाम है आपको......इस पोस्ट के लिए......
vandana ji !! sabse pahle to nav varsh ki hardik shubhkamnayen
जवाब देंहटाएंkya likhti ho aap , kuchh kahna hi kam hota hai
iishvar kare aap yun hi likhti rahen.
bahut sari shubhkamnayen