न मैं सुख हूँ न दुख
न राग न द्वेष
मैं जीवन हूँ
बहता पानी
जाने कितने केमिकल्स
अपने स्वार्थों के
भरते हो इसमें
कभी धूसर रंग
कभी लाल तो कभी सफेद
तुम स्वयं करते हो पीड़ा का आलिंगन
देते हो दावत गमों को
और फिर एक दिन
जब हो जाते हो आजिज़
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं से
तब मिलता हूँ "मैं"
सबसे सुलभ साधन के रूप में
मढ़ देते हो मेरे सिर अपने किये सभी कर्म कुकर्म
दोषारोपण करना तुम्हारा प्रिय खेल जो है
जान लो ये सत्य
तुम नहीं हो सकते कभी मुक्त
क्योंकि
बीज तुमने स्वयं बोए
फसल जैसी भी उगे
तुम्हारी ही कहलाएगी
जीवन पारदर्शिता का वो उदाहरण है
जिसमें तुम स्वयं को देख सकते हो
अब स्वीकारो अथवा नकारो
ये तुम तय करो
मैंने तो निस्पृह हो बहना सीखा है
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएं