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बुधवार, 27 मई 2020

उपकृत

ये उपकृत करने का दौर है
संबंधों की फाँक पर लगाकर
अपनेपन की धार

अंट जाते हैं इनमें
मिट्टी और कंकड़ भी
लीप दिया जाता है 
दरो दीवार को कुछ इस तरह
कि फर्क की किताब पर लिखे हर्फ़ धुंधला जाएं

फिर भी 
छुट ही जाता है एक कोना
झाँकने लगता है जहाँ से
संबंधों का उपहार

और धराशायी हो जाती हैं 
अदृश्य दीवारें
नग्न हो जाता है सम्पूर्ण परिदृश्य
आँख का पानी 
अंततः सोख चुके हैं आज के अगस्त्य

मुँह दिखाई की रस्मों का रिवाज़ यहां की तहजीब नहीं...


13 टिप्‍पणियां:


  1. अंट जाते हैं इनमें
    मिट्टी और कंकड़ भी
    लीप दिया जाता है
    दरो दीवार को कुछ इस तरह
    कि फर्क की किताब पर लिखे हर्फ़ धुंधला जाएं
    बेहतरीन रचना

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ मई २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाकई ये उपकृत करने का दौर है। वर्तमान परिपेक्ष्य को दर्शाती सुन्दर भावपूर्ण रचना आदरणीया ।

    जवाब देंहटाएं

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