ये उपकृत करने का दौर है
संबंधों की फाँक पर लगाकर
अपनेपन की धार
अंट जाते हैं इनमें
मिट्टी और कंकड़ भी
लीप दिया जाता है
दरो दीवार को कुछ इस तरह
कि फर्क की किताब पर लिखे हर्फ़ धुंधला जाएं
फिर भी
छुट ही जाता है एक कोना
झाँकने लगता है जहाँ से
संबंधों का उपहार
और धराशायी हो जाती हैं
अदृश्य दीवारें
नग्न हो जाता है सम्पूर्ण परिदृश्य
आँख का पानी
अंततः सोख चुके हैं आज के अगस्त्य
मुँह दिखाई की रस्मों का रिवाज़ यहां की तहजीब नहीं...