ये जिन्ना गोडसे रावण और कंसों को पूजने का दौर है
तुम निश्चित कर लो अपनी पगडण्डी
वक्त ने बदल दिए हैं अपने मन्त्र
उच्च स्वर में किये गए उच्चारण ही बनेंगे अब वेदों की ऋचाएं
ये खौलती खदबदाती भावनाओं को व्यक्त न करने का दौर है
जी हजूरी और गुलामी के ही शिखर पर पहुँचने की प्रबल संभावनाएं हैं
पाले बदलने वाले ही बचे रह पायेंगे
अब नहीं आयेंगे गोविन्द धर्मयुद्ध करने
इस बार वो नहीं थामेंगे अर्जुन के घोड़ों की रास
बदल लिया है उन्होंने भी पाला
आखिर क्यों ढोयें अपने सर पर एक और कुरुक्षेत्र कराने का इलज़ाम
बहती गंगा में हाथ धोने का रिवाज़ है हमारे यहाँ
तुम सोचो
रास्तों ने बदल दी है जमीन
और जमीन ने बदल दिया है तेवर
ऐसे में फुंफकारना भी न बन जाए कहीं
राजाज्ञा का उल्लंघन
सर झुकाना अदब है ... आज की परिभाषा में
फिर तुम क्यों दायरों के बाहर जा
फहराना चाहते हो परचम
जिसका न कोई गवाह होगा और न परिचय
कौए के मोती खाने का दौर है ये
पिपासा रक्तस्त्राव से ग्रसित है
©वन्दना गुप्ता
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-05-2018) को "उच्चारण ही बनेंगे अब वेदों की ऋचाएँ" (चर्चा अंक-2962) (चर्चा अंक-1956) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सटीक रचना
जवाब देंहटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०७ मई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।