आज
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का शुभ अवसर है तो मुझे लगा आज के लिए इससे
उपयुक्त प्रस्तुति और क्या होगी जब एक पुरुष स्त्री मन को, उसकी भावनाओं को
इतना मान सम्मान दे तो सार्थक हो जाता है महिला दिवस .....इसी बदलाव की तो
समाज को जरूरत है ..... पवन करण जी ने जो स्त्री शतक लिखा है उस पर मेरे
विचार पढ़िए .....आसान काम नहीं था ये जिसे उन्होंने सार्थक बनाया और
उपेक्षितों को महिमामंडित किया ...
स्त्रीशतक मेरी नज़र में
*****************
जो पुरुष ये कहता हो ‘स्त्री मेरे भीतर’ वो कितना संवेदनशील होगा, अंदाज़ा लगाया जा सकता है. स्त्री होना बेशक अलग है और स्त्री को अपने अन्दर जीना एक अलग ही अहसास है. पुरुष जब स्त्री को अपने अन्दर जीने लगे अर्थात स्त्री की मनोदशा का गहन चिंतन करने लगे तब एक अलग ही रचना का जन्म होता है. वहाँ वो पुरुष भाव का त्याग कर देता है, भूल जाता है वो पुरुष है. शरीर से ही तो स्त्री और पुरुष हैं जबकि आन्तरिक चेतना के स्तर पर न कोई स्त्री है न पुरुष तो ऐसे में जब चेतना का प्रसार होता है तब स्त्री के भावों से लबरेज होना कोई आश्चर्य नहीं. ऐसा ही कवि ‘पवन करण’ जी के साथ होता है शायद तभी तो जब भी कोई कृति आती है उसमें स्त्रीमन को जैसे किसी स्त्री ने ही पढ़कर लिखा हो, ऐसा लगता है. शायद यही है आंतरिक चेतना की वो शक्ति जो इंसान को बहुत ऊपर उठा देती है.
ज्ञानपीठ से प्रकाशित हाल में आया कविता संग्रह ‘स्त्रीशतक’ कवि पवन करण का नया संग्रह है जिसमें महाभारत, रामायण, पुराणों और उपनिषदों से स्त्री पात्रों को चुना गया है. यूँ जो स्त्री पात्र हम सभी जानते हैं उनके बारे में न लिखकर कवि ने एक नया जोखिम उठाया है. कवि ने वहाँ से ऐसे उपेक्षित पात्रों को उठाया है जिन्हें समाज किसी गिनती में नहीं गिनता या फिर जिनका होना किसी की निगाह में कोई महत्त्व नहीं रखता. वंचितों को तो वैसे भी इतिहास में कभी स्थान मिला ही नहीं फिर ये तो पौराणिक पात्र हैं जिन्हें उनकी उपयोगिता तक ही सराहा गया अन्यथा स्त्रियों का वहाँ कभी कोई रोल रहा ही नहीं सिवाय भोग्या के और कवि ने मानो उसकी उसी छवि के माध्यम से उस समाज पर कटाक्ष किया है. प्रश्न उठाये हैं, सोचने को विवश किया है. स्त्री कोई हो राजमहिषी या फिर वेश्या या अप्सरा वो सिर्फ एक देह भर है जैसे, फिर चाहे वो देवता हों, राजा हों या फिर ऋषि मुनि. ये तो अक्सर पुराणों में कथाओं आदि में सबने पढ़ा और सुना भी है तो इस सत्य को कतई नकारा नहीं जा सकता कि आदिकाल से स्त्री को कभी किसी ने उसके अस्तित्व के साथ नहीं स्वीकारा और वो संघर्ष आज तक जारी है. ऐसे में ये पहल करना कवि का स्त्रियों के प्रति उसके कोमल भाव को तो दर्शाता ही है बल्कि यहाँ कवि की मेहनत भी परिलक्षित होती है. आसान था कवि के लिए नामचीन स्त्री पात्रों पर लिख इतिश्री करना लेकिन कवि ने वो जोखिम उठाया जिसे उठाने की हिम्मत करना आसान नहीं होता. सभी पुराण आदि पढना और फिर उनमें से वंचितों के भावों, उनकी मनोदशा को आत्मसात करना और फिर उन पर लिखना कोई आसान कार्य नहीं. कई वर्षों की मेहनत का नतीजा ही है ये.
कवि ने कई ऐसे पात्र लिए हैं जिनके बारे में हमने कभी न पढ़ा न सुना तो पाठक आश्चर्य से भर उठता है जब उसे पता चलता है गोकुल में कृष्ण की कोई बहन ‘एका’ भी थी. उसकी मनोदशा या उसके भाव व्यक्त करना तो अलग बात हो गयी यहाँ तो यही सत्य हलक से नीचे उतारना आसान नहीं होता. कृष्ण ने तो सभी वंचितों को उपेक्षितों को अपनाया तो फिर उस बहन का जिक्र क्यूँ गायब रहा इतिहास से? क्या ये विचारणीय नहीं? मानो उसका जिक्र कर कवि यही प्रश्न उठाना चाहता है. यहाँ कवि का उद्देश्य महज कविता करना नहीं है बल्कि प्रश्नों की अदालत ही लगाईं है कवि ने .
अप्सराओं का जीवन क्या होता है किस से छुपा है. नाम बेशक सुन्दर दे दिया जाए लेकिन कार्य तो उनका वेश्या वाला ही होता है बस फर्क है वहां देव और ऋषि मुनि भोगी होते हैं. ऐसे में उन्हें कठपुतली बनना होता है इंद्र की और उसकी आज्ञा का पालन भर करना होता है. फिर चाहे वो किसी के प्रति अनुरक्त हो भी जाएँ तो भी उनकी आकांक्षाओं का वहां कोई महत्त्व नहीं होता फिर वो पूर्वचित्ति हो या उर्वशी, मेनका या रम्भा.
इसी तरह पिता पुत्री के संबंधों की मर्यादा भी कब और कैसे खंडित हो जाती रही या फिर रिश्तों को ताक पर रख अपनी ही पत्नी को संसर्ग हेतु किसी भी ऋषि या देवता के पास भेज देना क्या है ऐसे संबंधों का औचित्य जिन्हें हम देवता मान हाथ जोड़ देते हैं लेकिन वो अपने स्वार्थ के लिए स्त्री को हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं फिर भी पूजनीय कहलाते हैं. मानो इन सन्दर्भों को देकर कवि यही प्रश्न उठाना चाहता है क्यों आदिकाल से विरोध नहीं किया गया गलत का? क्यों हम पूजनीय मानें और इस रोग को पीढ़ी दर पीढ़ी फैलाएं? क्यों न सत्य सामने लाकर बेनकाब करें? और यही किया है कवि ने.
ऐसा ही दासियों का जीवन रहा. दासी चाहे रानी से कितनी ही सुन्दर और सुशील हो, जिसकी यदि रानियाँ भी प्रशंसा क्यों न करती हों लेकिन वो रहती ही दासी है. उसका स्थान कभी ऊंचा नहीं हो सकता. वो बेशक भोग्या बन जाए लेकिन राजमहिषी होने का स्वप्न नहीं देख सकती क्योंकि वो दासी है कोई राजकन्या नहीं. मानो उंच नीच के भेद के माध्यम से कवि यही कहना चाहता है ये वर्गभेद परम्परा से चली आ रही वो प्रथा है जिसने जाने कितनी ही स्त्रियों के जीवन को दांव पर लगा दिया. जो इतिहास के पन्नों में कहीं दबी रह गयीं. यहाँ कवि ने उन दासियों के मनों में झाँका है और उनके मन के भावों को उल्लखित किया है क्योंकि थीं तो वो भी हाड मांस का इंसान ही तो भावनाएं तो उनमें भी जन्मती थीं. वो भी सोचने समझने की शक्ति रखती थीं तो किसी राजकुमार को देखकर उनके मन में भी तो उसका होने की भावना जग सकती थी. कवि ने उसी नब्ज़ पर ऊंगली रखी जिसमें दर्द था. ये एक भावुक ह्रदय ही कर सकता था. वहीँ दासियों के मध्य अपनी रानी को लेकर किये गए संवाद भी हिस्सा बने संग्रह का जहाँ वो अपनी रानी से इतनी जुडी हुई हैं कि उसके दुखदर्द अपने लगते हैं जैसे गांधारी के विषय में केशनी और वासंती का संवाद होता है मानो कहना चाहता हो कवि कैसे अपने मन की कसक को गांधारी ने दबाया होगा और कैसे उसका दर्द उसकी दासियों ने महसूस किया होगा क्योंकि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के दर्द को बेहतर तरीके से महसूस कर सकती है:
मैं चाहती हूँ कि मेरा पति/ अपने सुसज्जित रथ पर नहीं/ अपने अश्व की पीठ पर/ पीछे बिठाकर/ आर्यावर्त की सभी/ नदियों के किनारे ले जाए मुझे/ गांधारी का यह कहना / तुम्हें याद है न वासंती
वहीँ ‘अनामिका’ के माध्यम से कवि ने करारी चोट की है वर्ण व्यवस्था पर, पितृ सत्ता की सोच पर जहाँ पवित्रता और अपवित्रता को वर्ण से बाँध दिया गया. अरे गया तो पुरुष ही है एक स्त्री के पास फिर वो दासी हो या देवी लेकिन नहीं, ये देवता स्वीकार नहीं कर सकते, देवता यानि उच्च कुल वाले. ये कैसी शुद्र प्रथाएं थीं जिन्होंने पूरे समाज को एक ऐसे दुश्चक्र में बाँध दिया जिससे मुक्त होने को आज भी छटपटा रहा है लेकिन मुक्त नहीं हो पा रहा. ये पीढ़ियों की बोई फसल है जो आज भी जितना काटो उतनी ही बढती जा रही है शायद यही खोज कवि को पुराणों तक घसीट लायी क्योंकि परम्पराएं कोई अकेला नहीं बना सकता. ये तो इतिहास की धरोहर होती हैं जिन्हें वक्त के साथ और कड़ा कर दिया जाता है ताकि जो उपेक्षित है वो उपेक्षित ही रहे. कभी सिर न उठा सके. जो आदिकाल से होता रहा वो ही परंपरा बन दीमक की तरह पीढ़ियों को काटता रहा बस मानो यही कवि कहना चाहता है :
दासी होना स्त्री होना नहीं/ बस दासी होना है, जिस तरह देवी होना/ बस देवी होना है, स्त्री होना नहीं / मैं दासी थी तो मेरे साथ/ संसर्ग अपवित्र था, अजामिल के लिए/ मैं देवी होती तो मेरे साथ सहवास/ पवित्र होता उसके लिए
ऐसे अनेक पात्रों से भरा पड़ा है संग्रह जो किसी ने कभी न पढ़े न सुने लेकिन जिनकी मर्मभेदी आवाज़ शायद कवि के कर्णरंध्रों तक पहुँची और कवि की कलम ने रच दिया एक नया इतिहास. यूँ पूरा संग्रह यदि देखा जाए तो स्त्री मन का आईना है. मगर कहीं कहीं कवि कुछ पात्रों के भावों को यदि थोडा और विस्तार देता तो सन्दर्भ और साफ़ हो जाते क्योंकि सबको नहीं पता कौन पात्र कहाँ से आया है और उसका वहां क्या रोल था. बेशक सन्दर्भ के रूप में कविता के नीचे दिया गया है कौन क्या था लेकिन फिर भी कहीं कहीं एक कमी सी खलती है जहाँ कवि ने कुछ एक पात्रों को उनके अधूरेपन के साथ छोड़ दिया है, वो पात्र विस्तार चाहते थे. लेकिन फिर भी इन कुछ एक पात्रों को यदि छोड़ दिया जाए तो पूरे संग्रह में हर पात्र के साथ न्याय करता नज़र आया है कवि. वहीँ शिव हों या पार्वती या विष्णु किसी पर भी आक्षेप लगाने से नहीं चूका कवि. यही कविकर्म है जहाँ भी विसंगति देखे करे प्रहार. ऐसा ही संग्रह में जगह जगह दिखाई देता है. संग्रह बेशक पठनीय और संग्रहणीय है. छोटी मगर मारक कविताओं का दस्तावेज है स्त्रीशतक. कवि की बरसों की मेहनत साफ़ परिलक्षित हो रही है. उम्मीद है आगे भी उनके पाठकों को उनकी लेखनी के माध्यम से ऐसे ही नए सन्दर्भों का पता चलता रहेगा.
स्त्रीशतक मेरी नज़र में
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जो पुरुष ये कहता हो ‘स्त्री मेरे भीतर’ वो कितना संवेदनशील होगा, अंदाज़ा लगाया जा सकता है. स्त्री होना बेशक अलग है और स्त्री को अपने अन्दर जीना एक अलग ही अहसास है. पुरुष जब स्त्री को अपने अन्दर जीने लगे अर्थात स्त्री की मनोदशा का गहन चिंतन करने लगे तब एक अलग ही रचना का जन्म होता है. वहाँ वो पुरुष भाव का त्याग कर देता है, भूल जाता है वो पुरुष है. शरीर से ही तो स्त्री और पुरुष हैं जबकि आन्तरिक चेतना के स्तर पर न कोई स्त्री है न पुरुष तो ऐसे में जब चेतना का प्रसार होता है तब स्त्री के भावों से लबरेज होना कोई आश्चर्य नहीं. ऐसा ही कवि ‘पवन करण’ जी के साथ होता है शायद तभी तो जब भी कोई कृति आती है उसमें स्त्रीमन को जैसे किसी स्त्री ने ही पढ़कर लिखा हो, ऐसा लगता है. शायद यही है आंतरिक चेतना की वो शक्ति जो इंसान को बहुत ऊपर उठा देती है.
ज्ञानपीठ से प्रकाशित हाल में आया कविता संग्रह ‘स्त्रीशतक’ कवि पवन करण का नया संग्रह है जिसमें महाभारत, रामायण, पुराणों और उपनिषदों से स्त्री पात्रों को चुना गया है. यूँ जो स्त्री पात्र हम सभी जानते हैं उनके बारे में न लिखकर कवि ने एक नया जोखिम उठाया है. कवि ने वहाँ से ऐसे उपेक्षित पात्रों को उठाया है जिन्हें समाज किसी गिनती में नहीं गिनता या फिर जिनका होना किसी की निगाह में कोई महत्त्व नहीं रखता. वंचितों को तो वैसे भी इतिहास में कभी स्थान मिला ही नहीं फिर ये तो पौराणिक पात्र हैं जिन्हें उनकी उपयोगिता तक ही सराहा गया अन्यथा स्त्रियों का वहाँ कभी कोई रोल रहा ही नहीं सिवाय भोग्या के और कवि ने मानो उसकी उसी छवि के माध्यम से उस समाज पर कटाक्ष किया है. प्रश्न उठाये हैं, सोचने को विवश किया है. स्त्री कोई हो राजमहिषी या फिर वेश्या या अप्सरा वो सिर्फ एक देह भर है जैसे, फिर चाहे वो देवता हों, राजा हों या फिर ऋषि मुनि. ये तो अक्सर पुराणों में कथाओं आदि में सबने पढ़ा और सुना भी है तो इस सत्य को कतई नकारा नहीं जा सकता कि आदिकाल से स्त्री को कभी किसी ने उसके अस्तित्व के साथ नहीं स्वीकारा और वो संघर्ष आज तक जारी है. ऐसे में ये पहल करना कवि का स्त्रियों के प्रति उसके कोमल भाव को तो दर्शाता ही है बल्कि यहाँ कवि की मेहनत भी परिलक्षित होती है. आसान था कवि के लिए नामचीन स्त्री पात्रों पर लिख इतिश्री करना लेकिन कवि ने वो जोखिम उठाया जिसे उठाने की हिम्मत करना आसान नहीं होता. सभी पुराण आदि पढना और फिर उनमें से वंचितों के भावों, उनकी मनोदशा को आत्मसात करना और फिर उन पर लिखना कोई आसान कार्य नहीं. कई वर्षों की मेहनत का नतीजा ही है ये.
कवि ने कई ऐसे पात्र लिए हैं जिनके बारे में हमने कभी न पढ़ा न सुना तो पाठक आश्चर्य से भर उठता है जब उसे पता चलता है गोकुल में कृष्ण की कोई बहन ‘एका’ भी थी. उसकी मनोदशा या उसके भाव व्यक्त करना तो अलग बात हो गयी यहाँ तो यही सत्य हलक से नीचे उतारना आसान नहीं होता. कृष्ण ने तो सभी वंचितों को उपेक्षितों को अपनाया तो फिर उस बहन का जिक्र क्यूँ गायब रहा इतिहास से? क्या ये विचारणीय नहीं? मानो उसका जिक्र कर कवि यही प्रश्न उठाना चाहता है. यहाँ कवि का उद्देश्य महज कविता करना नहीं है बल्कि प्रश्नों की अदालत ही लगाईं है कवि ने .
अप्सराओं का जीवन क्या होता है किस से छुपा है. नाम बेशक सुन्दर दे दिया जाए लेकिन कार्य तो उनका वेश्या वाला ही होता है बस फर्क है वहां देव और ऋषि मुनि भोगी होते हैं. ऐसे में उन्हें कठपुतली बनना होता है इंद्र की और उसकी आज्ञा का पालन भर करना होता है. फिर चाहे वो किसी के प्रति अनुरक्त हो भी जाएँ तो भी उनकी आकांक्षाओं का वहां कोई महत्त्व नहीं होता फिर वो पूर्वचित्ति हो या उर्वशी, मेनका या रम्भा.
इसी तरह पिता पुत्री के संबंधों की मर्यादा भी कब और कैसे खंडित हो जाती रही या फिर रिश्तों को ताक पर रख अपनी ही पत्नी को संसर्ग हेतु किसी भी ऋषि या देवता के पास भेज देना क्या है ऐसे संबंधों का औचित्य जिन्हें हम देवता मान हाथ जोड़ देते हैं लेकिन वो अपने स्वार्थ के लिए स्त्री को हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं फिर भी पूजनीय कहलाते हैं. मानो इन सन्दर्भों को देकर कवि यही प्रश्न उठाना चाहता है क्यों आदिकाल से विरोध नहीं किया गया गलत का? क्यों हम पूजनीय मानें और इस रोग को पीढ़ी दर पीढ़ी फैलाएं? क्यों न सत्य सामने लाकर बेनकाब करें? और यही किया है कवि ने.
ऐसा ही दासियों का जीवन रहा. दासी चाहे रानी से कितनी ही सुन्दर और सुशील हो, जिसकी यदि रानियाँ भी प्रशंसा क्यों न करती हों लेकिन वो रहती ही दासी है. उसका स्थान कभी ऊंचा नहीं हो सकता. वो बेशक भोग्या बन जाए लेकिन राजमहिषी होने का स्वप्न नहीं देख सकती क्योंकि वो दासी है कोई राजकन्या नहीं. मानो उंच नीच के भेद के माध्यम से कवि यही कहना चाहता है ये वर्गभेद परम्परा से चली आ रही वो प्रथा है जिसने जाने कितनी ही स्त्रियों के जीवन को दांव पर लगा दिया. जो इतिहास के पन्नों में कहीं दबी रह गयीं. यहाँ कवि ने उन दासियों के मनों में झाँका है और उनके मन के भावों को उल्लखित किया है क्योंकि थीं तो वो भी हाड मांस का इंसान ही तो भावनाएं तो उनमें भी जन्मती थीं. वो भी सोचने समझने की शक्ति रखती थीं तो किसी राजकुमार को देखकर उनके मन में भी तो उसका होने की भावना जग सकती थी. कवि ने उसी नब्ज़ पर ऊंगली रखी जिसमें दर्द था. ये एक भावुक ह्रदय ही कर सकता था. वहीँ दासियों के मध्य अपनी रानी को लेकर किये गए संवाद भी हिस्सा बने संग्रह का जहाँ वो अपनी रानी से इतनी जुडी हुई हैं कि उसके दुखदर्द अपने लगते हैं जैसे गांधारी के विषय में केशनी और वासंती का संवाद होता है मानो कहना चाहता हो कवि कैसे अपने मन की कसक को गांधारी ने दबाया होगा और कैसे उसका दर्द उसकी दासियों ने महसूस किया होगा क्योंकि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के दर्द को बेहतर तरीके से महसूस कर सकती है:
मैं चाहती हूँ कि मेरा पति/ अपने सुसज्जित रथ पर नहीं/ अपने अश्व की पीठ पर/ पीछे बिठाकर/ आर्यावर्त की सभी/ नदियों के किनारे ले जाए मुझे/ गांधारी का यह कहना / तुम्हें याद है न वासंती
वहीँ ‘अनामिका’ के माध्यम से कवि ने करारी चोट की है वर्ण व्यवस्था पर, पितृ सत्ता की सोच पर जहाँ पवित्रता और अपवित्रता को वर्ण से बाँध दिया गया. अरे गया तो पुरुष ही है एक स्त्री के पास फिर वो दासी हो या देवी लेकिन नहीं, ये देवता स्वीकार नहीं कर सकते, देवता यानि उच्च कुल वाले. ये कैसी शुद्र प्रथाएं थीं जिन्होंने पूरे समाज को एक ऐसे दुश्चक्र में बाँध दिया जिससे मुक्त होने को आज भी छटपटा रहा है लेकिन मुक्त नहीं हो पा रहा. ये पीढ़ियों की बोई फसल है जो आज भी जितना काटो उतनी ही बढती जा रही है शायद यही खोज कवि को पुराणों तक घसीट लायी क्योंकि परम्पराएं कोई अकेला नहीं बना सकता. ये तो इतिहास की धरोहर होती हैं जिन्हें वक्त के साथ और कड़ा कर दिया जाता है ताकि जो उपेक्षित है वो उपेक्षित ही रहे. कभी सिर न उठा सके. जो आदिकाल से होता रहा वो ही परंपरा बन दीमक की तरह पीढ़ियों को काटता रहा बस मानो यही कवि कहना चाहता है :
दासी होना स्त्री होना नहीं/ बस दासी होना है, जिस तरह देवी होना/ बस देवी होना है, स्त्री होना नहीं / मैं दासी थी तो मेरे साथ/ संसर्ग अपवित्र था, अजामिल के लिए/ मैं देवी होती तो मेरे साथ सहवास/ पवित्र होता उसके लिए
ऐसे अनेक पात्रों से भरा पड़ा है संग्रह जो किसी ने कभी न पढ़े न सुने लेकिन जिनकी मर्मभेदी आवाज़ शायद कवि के कर्णरंध्रों तक पहुँची और कवि की कलम ने रच दिया एक नया इतिहास. यूँ पूरा संग्रह यदि देखा जाए तो स्त्री मन का आईना है. मगर कहीं कहीं कवि कुछ पात्रों के भावों को यदि थोडा और विस्तार देता तो सन्दर्भ और साफ़ हो जाते क्योंकि सबको नहीं पता कौन पात्र कहाँ से आया है और उसका वहां क्या रोल था. बेशक सन्दर्भ के रूप में कविता के नीचे दिया गया है कौन क्या था लेकिन फिर भी कहीं कहीं एक कमी सी खलती है जहाँ कवि ने कुछ एक पात्रों को उनके अधूरेपन के साथ छोड़ दिया है, वो पात्र विस्तार चाहते थे. लेकिन फिर भी इन कुछ एक पात्रों को यदि छोड़ दिया जाए तो पूरे संग्रह में हर पात्र के साथ न्याय करता नज़र आया है कवि. वहीँ शिव हों या पार्वती या विष्णु किसी पर भी आक्षेप लगाने से नहीं चूका कवि. यही कविकर्म है जहाँ भी विसंगति देखे करे प्रहार. ऐसा ही संग्रह में जगह जगह दिखाई देता है. संग्रह बेशक पठनीय और संग्रहणीय है. छोटी मगर मारक कविताओं का दस्तावेज है स्त्रीशतक. कवि की बरसों की मेहनत साफ़ परिलक्षित हो रही है. उम्मीद है आगे भी उनके पाठकों को उनकी लेखनी के माध्यम से ऐसे ही नए सन्दर्भों का पता चलता रहेगा.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-03-2017) को "अगर न होंगी नारियाँ, नहीं चलेगा वंश" (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सर आपकी किताब स्त्री शतक मुझे चाहिए,आप बताएं कैसे प्राप्त कर सकता हूँ
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