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सोमवार, 8 जनवरी 2018

प्रोफेसर संजीव जैन की नज़र में - गिद्ध गिद्दा कर रहे हैं


जब आपके  संग्रह का जिस दिन विमोचन हुआ हो और रात को सूचना मिले आपके संग्रह को दूर बैठे मर्मज्ञ ने पढ़कर उसपर समीक्षा भी लिख दी तो मेरे ख्याल से ये किसी के लिए भी कितना महत्वपूर्ण हो सकता है ये कोई लेखक/कवि ही समझ सकता है. समीक्षा पढ़कर मुझे लगा बाकी सब काम बाद में पहले ये आवाज़ सब तक पहुँचनी चाहिए. यूँ लगा जैसे उन्होंने संग्रह की नब्ज़ पर हाथ धर दिया हो . किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ नहीं जानती बस नतमस्तक हूँ .
 
भोपाल में रहने वाले प्रोफेसर संजीव जैन जी की नज़र में गिद्धों ने कैसा गिद्दा किया है वो आपके समक्ष है :

मोहित, विकृत और उल्टे समय में
‘गिद्ध गिद्दा कर रहे हैं’ एक जरूरी किताब

वंदना गुप्ता का अभी हाल में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘गिद्ध गिद्दा कर रहे हैं’ समय की विकृत होती चाल और असंगत मानव बोध को रेखांकित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। आज की व्यवस्था ने समाज की ऊपरी सतह पर तैरनेवाली एक आत्ममुग्ध पीढ़ी को पैदा किया है। यह वह पीढ़ी है, ये वे लोग हैं जिनकी दृष्टि में नियोनलाईट की चमक है। रेप म्यूजिक का संगीत है और जेब में प्लास्टिक मनी है। ये अपनी सुख सुविधाओं के प्रति इतने आत्ममुग्ध हैं कि इस पूंजीवाद की झूठन को न देख पा रहे हैं न उसकी क्रूरताओं और मानवीयताओं को महसूस कर पाने की क्षमता उनके पास है। वंदना जी इस समय की आत्ममोहित, विकृत और उल्टीगति को बखूबी महसूस करती हैं और अपनी कविताओं में नये भाषाई अंदाज में बयां करती हैं।

‘‘क्योंकि/दिन उगते नहीं किसी शाख पर/और/विडम्बनाओं की सूक्तियाँ हैं कि/ लुभावने संगीत सी/रस घोलने की कोशिश में/चादर ताने खड़ी हैं।’’

‘‘शोर/अंदर और बाहर बराबर है/ सन्नाटा/अंदर और बाहर बराबर है/’’ (शोर और एक सन्नाटे के बीच, कविता से) क्या हम इस सन्नाटे और शोर के अंतर को महसूस कर पाने में सक्षम हैं? क्या भूमंडलीय भोंपू (मीडिया) आज की सतह पर तैरती हुई पीढ़ी को इस सन्नाटे के पीछे के शोर को सुनने का अवकाश और समय देता है? शायद नहीं, यही कारण है कि सतह के नीचे का जीवन अत्यंत क्रूर और विसंगत होता जा रहा है यद्यपि सतह के ऊपर भी विकृतियाँ कम तीखी नहीं हैं।

इन तीखी विकृतियों को वंदना जी ‘सन्नाटे का दौर’ में इस समय और सोच के बीच की असंगत फांक पर अंगुली रखते हुये इस तरह बयां करतीं हैं - ‘‘ये सन्नाटों का दौर है/कोलाहल विकल्प नहीं तोड़ने का/.......एक दौड़ते भागते/और एक ठहरे हुए समय के मध्य/ नहीं है कोई प्रतिस्पर्धा/अपने अपने वजूद हैं/ और / है उनकी अपनी अपनी पुण्यतिथि/.....तुम सोचो/ कौन से समय के साक्षी हो/ अपनी सोच की जड़ता से पैदा सन्नाटे के/ या फिर/ हहराती मानवता के कोलाहल से उपजी चिंघाड़ के।’’ मानवता के प्रति एक गहरी व्याकुलता का निदर्शन यहाँ दिख रहा है। ‘चिंघाड़ती मानवता’ में चिंघाड़ शब्द गहरी पीड़ा और कुछ न कर पाने की विडम्बना को रेखांकित कर रहा है। चिंघाड़ शब्द सामान्यतया हाथी की आवाज के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। हाथी की यह चिंघाड़ उसकी विवश पीड़ा को व्यक्त करती है। हाथी एक सक्षम जानवर है पर जब चारों ओर से शेर या शिकारी उसे घेर कर आक्रमण करते हैं और घायल कर देते हैं तो वह विवशता में चिंघाड़ता है। मानवता भी इसी तरह अपनी विकृति और विंसगति की पीड़ा में चिंघाड़ रही है। प्रसाद जी ने कामायनी में लिखा था - ‘विषमता की पीड़ा में व्यस्त’ यह इसी समय का संकेत था।

आज की जिस तैरती हुई पीढ़ी की मैंने बात की थी ‘तुम सोचो’ पदबंध उसी के लिये संबोधित है। कविता उस विडम्बना के प्रति है जो सोच अपनी जड़ता से पैदा सन्नाटे की साक्षी है न कि हहराती चिंघाड़ती मानवता की।

दुर्दांत समय के प्रति वंदना जी संवेदनशील हैं, परंतु वे उस समय के प्रति मौन नहीं रहना चाहती हैं और न हमें रहने देना चाहती हैं। वे चीख का संविधान रचना चाहती हैं। उन अनगिनत चीखों से मानवता की चेतना को रंगना चाहती हैं, जो वास्तव में अन्याय और शोषण के खिलाफ होना चाहिये थीें। सत्ता और व्यवस्था ने जिस तरह से मानव चेतना को आतंकित किया है और डर को उसकी रग रग में भर दिया है, उसके खिलाफ सार्थक और सामूहिक चीख ही कारगर प्रतिरोध हो सकती है।

‘‘आओ चलो/गढ़ें एक चीखों का संविधान/ कि / चीखें अप्रसांगिक तो नहीं/ बना डालें चीखों को जिंदों का पर्याय/ ये समय है/ चीखों की अंतरात्मा को कुरेदने का/ एक दुर्दांत समय के (यह(निरीह) लेखक द्वारा लिखा गया है मूल कविता में नहीं है) साक्षी बनने से बेहतर है/ चीखो चीखो चीखो।’’ ...........‘चीखो/ कि चीख भी एक अभिव्यक्ति है।’’

इस अभिव्यक्ति की सामूहिक आवश्यकता है हमारे देश और समाज को। यदि ऐसा नहीं किया गया, या ऐसा करना लगातार स्थगित किया जाता रहा तो जीवन के आकाश पर ‘गिद्ध गिद्दा करते नजर आयेंगे। गिद्ध जब गिद्दा करते हैं तो वह समय मानवता के पतन और सड़न का होता है। मानवता जमीं पर क्षतविक्षत पढ़ी होती है मनुष्य जब लाश में बदल जाता है तो यह स्थिति पैदा होती है।

इस स्थिति का चित्र देखिये - ‘‘एक शहर रो रहा है/ सुबह की आस में/....यहाँ नग्न परछाइयों के रेखाचित्र/ समय एक अंधी लाश पर सवार / ढो रहा है वृत्तचित्र/ नहीं धोये जाते अब मलमल के कुरते सम्हालियत से/ साबुन का घिसा जाना भर जरूरी है/ बेतरतीबी बेअदबी ने जमाया है जबसे सिंहासन / इंसानियत की सांसें शिव के त्रिशुल पर अटकी / अंतिम साँसें ले रही है / और कोई अघोरी गा रहा है राग मल्हार/’’

मानवता के जिंदा लाश में तब्दील होते जाने की स्थितियों को पूरे कविता संग्रह में धागे की तरह पिरोया गया है। और जब ऐसा होता है तो अघोरी का राग मल्हार गाना और ‘गिद्धों का गिद्दा करना’ अपने कहन और संवेदना में नश्तर की तरह हमारे जेहन में उतर जाता है।

बेफ्रिक तैरती हुई पीढ़ी ने विकास की थोथी और विडम्बना ग्रस्त स्थिति को युग का सबसे सार्थक नारा बना कर पेश करने की स्थितियाँ पैदा की हैं और जब मानवता और संवेदनायें रसातल में जाने को उतावली हों तो ऐसे समय में विकास के नाम पर राज करना और जनता को भ्रमित करने में इस तैरती हुई पीढ़ी की बेफ्रिकी ही एक वजह है। वंदना जी ने इसे इस तरह अभिव्यक्त किया है - ‘‘ये समय का सबसे स्वर्णिम युग है/ क्योंकि / अंधेरों का साम्राज्य चहुँ ओर से सुरक्षित है/ फिर सुबह की फिक्र कौन करे।’’

सुबह की फिक्र करने के लिये हमें निर्णय लेना होगा कि हम किस के साथ अपने मानवीय दायित्व को महसूस करते हैं। समय के अपंग होते जाने के पक्ष में या अपंग हो चुके समय को बदलने के पक्ष में। वंदना जी चुनौती देती हैं अपने आपको भी और हमें भी कि ‘‘निर्णय करो / वर्ना इस अपंग समय के जिम्मेदार कहलाओगे / तुम्हारी बुजदिली कायरता को ढांपने को / नहीं बचा है किसी भी माँ का आंचल/ छातियों में सूखे दूध की कसम है तुम्हें / या तो करो क्रांति / नहीं तो स्वीकार लो / एक अपंग समय के साझीदार हो तुम /

इस कविता संग्रह का मूल स्वर राजनैतिक है। जीवन अपने समय और गति में जिस तरह वक्रता ग्रहण करता जा रहा है। कवियत्री उससे बखूबी परिचति है। लोकतंत्र की सड़ांध अब असहनीय होती जा रही है। जनता को आंकड़ों में बदला जा रहा है और चेतना को अनुकूलित किया जा रहा है निरंतर। डर और आतंक, विकास और प्रलोभन इस भीड़तंत्र के मुख्य राजनैतिक हथकंड़ें हैं - ‘‘वास्तव में तो भीड़तंत्र है ये / प्रतिकार हो, विरोध या बहिष्कार/ स्लोगन भर हैं / हथियार है इनके / खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करने भर के / असलियत में तो सभी तमाशाई है या जुगाडू / ऊँट के करवट बदलने भर से / बदल जाती हैं जिनकी सलवटें / मिला लिये जाते हैं / सिर से सिर, हाथ से हाथ / और बात से बात / वहाँ / मौका परस्त नहीं किया करते / मौकापरस्तों का विरोध, बहिष्कार या प्रतिकार/ ........हाँफते रहो और चलते रहो / बस यही मूलमंत्र है विकास की राह का।’’

लोकतंत्र का भीड़तंत्र में बदलते जाना इसकी नियति है। दरअसल यह पूँजीवादी लोकतंत्र है इसका निहित उद्देश्य ही जनता को भीड़तंत्र में बदलना होता है। क्योंकि जागरूक और सचेत मानव समूह विकास की इतनी फूहड़ और विषमतामूलक परिभाषा को स्वीकार नहीं कर सकता। इस लोकतंत्र में ही तमाम चीजे नारों में बदल दी जाती हैं, ‘विकास’ भी विरोध भी। मानवता भी अमानवीयता भी। हिंसा भी और अहिंसा भी। नारे ही एक मात्र राजनैतिक गतिविधि बन जाते हैं। नारे जो जनता को लुभाते हैं, उनकी चेतना को कुंद करते हैं और अपने पक्ष में मत देने के लिये उसे अनुकूलित करते हैं। यही इस पूंजीवादी लोकतंत्र की तकनीक है, जनता की मानवीय चेतना को भीड़तंत्र में बदलने की। इसे पाओलो फ्रेरे ने रेवणीकरण की संज्ञा दी है। लोकतंत्र में जनता को कुछ सुविधाएं रेवणी की तरह बांटी जाती हैं ताकि उसमें क्रांति या परिवर्तन की चेतना पैदा न हो। हमारे लोकतंत्र के लिये में ‘तमाशाई और जुगाडू’ बहुत सार्थक और कारगर टिप्पणी है राजनैतिक चेतना पर। आज का समय या तो हमें तमाशाई बनाता है और ताली बजाकर लोकतंत्र का समर्थन करना सिखाता है या अपने स्वार्थ साधने के लिये जुगाडू बनाता है। जो जुगाडू बन जाते हैं, वे तमाशाई नहीं रहते वे तमाशा दिखाने वालों में शामिल हो जाते हैं फलस्वरूप लोकतंत्र एक फूहड़ और बर्बरतापूर्ण तंत्र में बदल जाता है।

‘‘यहाँ अपने-अपने अर्थ / और अपने अपने स्यापे हैं/ जुगाड़ के पेंचों पर जहाँ / खड़ी की जाती हैं प्रसिद्धि की इमारत / वहाँ दोष ढूंढने वालों पर ही / भाँजी जाती हैं अनचाही तलवारें / छिन्नमस्तक की लाशों पर / लगाये जाते हैं जहाँ कहकहे / वहाँ प्रतिबद्धतायें वेश्या सी नोची खसौटी जाती हैं / राजनीति के मर्मज्ञ जानते हैं / क्षेत्र कोई हो / कैसे जुगाड़ के साम्राज्य को किया जाये पोषित / जो उनकी सत्ता रहे निर्विघ्न कायम।’’

वर्तमान लोकतंत्र की अलोकतांत्रिकता पर एक सार्थक टिप्पणी है यह। इस राजनीतिक समझ को जिस दिन ‘तैरती हुई पीढ़ी’ समझ लेगी उसका मोहभंग हो जायेगा पर ऐसा होना संभव नहीं दिखता क्योंकि इस पीढ़ी ने व्यापक मानवीय जीवन से अपना नाता तोड़ लिया है। यह अपने नपुंसक स्वर्ग में मस्त है। सुविधाओं का मायाजाल इन्हें घेरे हुये है। इसीलिये वंदना जी ने लिखा - ‘‘नपुंसक से ओढ़े आवरण से खुद को मुक्त करने का समय है ये।’’ किस आवरण की ओर संकेत है? यह विचारणीय है। यह कविता ‘ स्यापा’ हमें बहुत कुछ सोचने विचारने का विवश करती है। जब वे कहती हैं कि - ‘‘शायद हुक्मरानों के कानों में / पड़ जायें कर्णभेदी शहनाइयाँ / और बच जाये एक मसीहा कत्ल होने से / वर्ना अपने समय की विडम्बनाओं को दोहते-दोहते / रीत जायेंगी जाने कितनी पीढ़ियाँ / नपुंसक से ओढ़े आवरण से खुद को मुक्त करने का समय है ये।’’

हमने बहुत से मानव जीवन के सच्चे मसीहाओं को अभी हाल के कुछ वर्षों में कत्ल होते हुए देखा है। यह कत्लेआम न केवल भारत में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में घटित होता रहा है। क्या पूरी मानवता इसके खिलाफ चीख नहीं सकती? चीख सकती है, परंतु सत्ता और पूँजी ने सुविधाओं की हड्डी जो गले में डाल रखी है। कैसे चीखेगी यह तैरती हुई पीढ़ी? जब स्थिति यह हो - ‘‘ये शापित वक्त है / जहाँ फलने-फूलने के मौसम / सिर्फ चरण चारण करने वालों को ही नसीब होते हैं।’’ सत्ता ने चरण चारण करने की इतनी गहरी नींव डाल रखी है कि सिर उठाकर चलने वालों के सिर कलम कर दिये जाते हैं ताकि कोई व्यक्ति सिर उठाकर चलने की हिम्मत न करे। और इसके विपरीत वे यह बताना भी नहीं भूलतीं सत्ता कि कदमबोसी ही तुम्हें वक्त के सीने की तहरीर बना सकते हैं - ‘‘कायदे पढ़ना जरूरी है / किसी भी क्षेत्र में पदार्पण से पहले/ क्योंकि / वक्त के सीने की तहरीर बनने को जरूरी है कदमबोसी।’’

वंदना जी बहुत सार्थक और मानवीय राजनैतिक समझ रखती हैं। वे समय की घड़कन और जीवन के बीच की फांक को भी बखूबी समझती हैं। इस पूरे संग्रह में स्त्री विमर्श विषयक कवितायें नहीं है यह आश्चर्यजनक हो सकता है पर यह सुखद है इसलिये कि एक स्त्री जीवन को उसकी समग्रता में देख समझ रही है और मानवीय विकृतियों को व्यापक संदर्भ में परिभाषित कर रही है। यह आधी आबादी में राजनैतिक चेतना के विस्तार का संकेत है। ऐसा नहीं है कि वंदना जी ने स्त्री विमर्श विषयक कवितायें नहीं लिखी हैं। इनके पहले के संग्रहों में बहुत सी गहरी समझ वाली कवितायें हैं।

अंत में कुछ और उम्मीद और निर्णय की चुनौती के साथ बात समाप्त करता हूँ - ‘‘सुनो / अब अपील दलील का समय निकल चुका है / बस फैसले की घड़ी है / तो क्या है / तुममें इतना साहस / जो दिखा सको सूरज को कंदील / हाँ हाँ आज हैवानियत के सूरज से ग्रस्त है मनुष्यता / और तुम्हारी कंदील ही काफी है / इस भयावह समय में रोश्नी की किरण बनकर / मगर जरूरत है तो सिर्फ / तुम्हारे साहस से परचम लहराने की / और पहला कदम उठाने की / क्या तुम तैयार हो।’’ हमें तैयार होना ही होगा इस प्रश्न के उत्तर में नहीं तो समय और स्थितियाँ हाथ से निकलती जायेंगी और शायद हम यह साहस दिखाने की स्थिति में ही न रहें। ऐसा वक्त आये उससे पहले परचम लहराना निहायत ही आवश्यक है।

डॉ. संजीव जैन
भोपाल

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-01-2018) को "हमारा सूरज" (चर्चा अंक-2843) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-01-2018) को "हमारा सूरज" (चर्चा अंक-2843) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. डॉ संजीव जैन द्वारा लिखी गई आपकी उक्त पुस्तक की समीक्षा पढ़ने के बाद, पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई है।समीक्षा देखकर लगता है कि आपने,अपनी इस पुस्तक में,आज के दौर के राजनैतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संकट के प्रति समाज को अपनी कविताओं के माध्यम से चेताया है।

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  4. @विनोद पाराशर जी आपने सही आकलन किया .........इस संग्रह में देश समाज साहित्य में व्याप्त विसंगतियों और विडम्बनाओं पर ही कहने की कोशिश की गयी है .........आप पढना चाहते हों तो वनिका पब्लिकेशन की प्रकाशक नीरज शर्मा जी से मंगवा सकते हैं .......नंबर दे रही हूँ ....
    "गिद्ध गिद्दा कर रहे हैं" कविता संग्रह
    नीरज शर्मा : 863079331, 9837244343

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