अकेलेपन के गीतों पर
डोलता है धरती का सीना
जाने कैसे
निष्ठुर हो गया आसमां
यूँ
चिडिया ने चुग्गे तो खूब खिलाये थे
फिर कैसे
बाँझ हो गयी इंसानियत
जो पराये दर्द पर तिलमिला उठो
और उसके लिए खुद ही दर्द के बायस बन जाओ
आह !
जान लो इतना सा सच बस
चाहे न मिले धरती न मिले आसमां
फिर भी जानती है वो जीना
क्यूँकि
चिड़िया पंखहीन नहीं .........
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-07-2016) को "आये बदरा छाये बदरा" (चर्चा अंक-2404) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह, बहुत सुन्दर
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