भोपाल से प्रकाशित 'लोकजंग' समाचार पत्र में "सेफ्रीन" कथा-संग्रह पर मेरे विचार :
उत्कर्ष प्रकाशन से
प्रकाशित मुकेश दूबे का कहानी संग्रह ‘सैफ्रीन’ अपने नाम से ही सबसे पहले आकर्षित
करता है . सैफ्रीन एक नया शब्द आखिर इसका क्या होगा अर्थ . मन में व्याकुलता का
होना स्वाभाविक है और यही व्याकुलता कहानी संग्रह को पढवाने के लिए काफी है . मानो
शब्दकोष को एक नया शब्द दे दिया हो लेखक ने .
संग्रह की पहली ही कहानी ‘सैफ्रीन’
है तो मानो पाठक को मनचाही मुराद मिल गयी हो . छोटी सी कहानी गहन अर्थ समेटे . एक नयी विवेचना करते हुए तो
साथ ही सोच को भी विस्तार देते हुए . यूँ तो मजहबी सियासत और मजहबी रंग से कौन
वाकिफ नहीं है मगर जब बात आती है प्रेम की तो दोनों तरफ तलवारे खिंच जाती हैं और
खिंची तलवारों के मध्य ही लेखक ने एक नया रंग दिया प्रेम को . हिन्दू के सैफ्रोन
और मुस्लिम के ग्रीन को मिला एक नए रंग का न केवल निर्माण किया बल्कि प्रेम करने
वालों को मानो एक नया मजहब ही प्रदान कर दिया और यही इस कहानी का मूल तत्व है .
‘केमिस्ट्री ऑफ़ फिजिक्स’ न
केवल सम्पूर्ण विज्ञान को समेटे है बल्कि विज्ञानं के माध्यम से वैवाहिक जीवन की
ग्रंथियों को भी खोलती है और बताती है जीवन में सही समीकरण तभी बनते हैं जब दोनों
तरफ बराबर का आकर्षण हो . एक स्तर हो और ये किसी भी सफल दांपत्य जीवन का मूल सूत्र
है वो तभी निभ सकते हैं जब दोनों स्त्री और पुरुष अपनी फिजिक्स सही कर लें तो
केमिस्ट्री स्वयमेव आकार ले लेती है , एक छोटी सी कहानी पूरे विज्ञान के माध्यम से
बयां करना लेखक के कुशल लेखन कौशल का चमत्कार है .
‘सुचित्रा’ एक पेंटर की
कल्पना और हकीकत का खूबसूरत चित्रण है . जहाँ वो कल्पना से बतियाता है और हकीकत
में कमाल करता है . दीपांशु कल्पना को जीता है जिस कारण उसकी पेंटिंग खुद बोल उठती
हैं तो दूसरी तरफ उसे अपनी कल्पना पर इतना विश्वास है कि वो कह उठता है यदि हकीकत
में भी तुम मिल गयीं तो तुम्हारा जो भी नाम हो मैं सुचित्रा ही कहूँगा ......इतना
जिवंत कर देना लगे ही नहीं पाठक को कि वो किस्से बात कर रहा है कल्पना से या हकीकत
से .......एक खूबसूरत कविता सी कहानी .
‘परछाइयों के शहर में’ एक
सस्पेंस के भंवर में ले जाती कहानी है जहाँ दो मुसाफिर जंगल के रास्ते जा रहे हैं
और तेज बारिश के कारण रास्ते में रुकना पड़ता है और फिर रात जो होता है उसका जब
सबको बताते हैं तो कोई विश्वास नहीं करता . तो दूसरी तरफ एक भ्रम भी पैदा करने की
कोशिश की गयी है मानो लेखन कहना चाहता हो भूत प्रेत भी होते हैं लेकिन आज के
विज्ञान के युग में कोई इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता . हाँ , ये हो सकता है
कहने वाले ने सिर्फ डराने के लिए कहा हो और उन दोनों ने विश्वास कर लिया हो या फिर
रात के अँधेरे में जब थोड़ी राहत मिली हो तो आँख लग गयी हो और वहां एक स्वप्न देखा
हो और वो ही हकीकत सा लगा हो .........हो कुछ भी सकता है मगर कहानी अपनी रोचकता
बनाए रखने में कामयाब रही .
‘चदरिया झीनी रे’ रिश्तों
की झीनी चादर को तो इंगित करती ही है वहीँ संसार से जाने के बाद कैसे रिश्ते छीजते
हैं और जो देह रुपी चदरिया आत्मा ने ओढ़ी है वो निकल जाती है तो क्या होता है उसे
भी रेखांकित करने में सक्षम रहे हैं लेखक .
‘सिम्बायोसिस’ यानि एक
दूसरे की जरूरत पूरी करो और आगे बढ़ते रहो के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है लेखक
ने कहानी में स्मिता और रविन्द्र के माध्यम से . कैसे एक लड़की अपने जीवन में
समझौते के पगडण्डी पर पाँव रख अपने भविष्य की नींव रखती है बेशक आम मानव मन इसे
स्वीकारेगा नहीं लेकिन आजकल कुछ लोग अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु इस राह को अपनाते हैं
और इसमें बुराई भी नहीं समझते .
‘तर्पण’ एक तवायफ की
ज़िन्दगी की जद्दोजहद की दास्तान है जो एक औरत बनाना चाहती है मगर तंगदिल सोच के
मालिक बनने नहीं देते और उसका आखिरी ख़त एक मार्मिक मगर हकीकत पेश करता है तब
तंगदिली के कुहासे छंटते हैं .इंसान किन्ही कमजोर क्षणों में निर्णय तो ले लेता है
लेकिन खुमार उतरने पर अपनी कुंठित सोच से बाहर नहीं आ पाता और अपनी असलियत पर उतर
आता है मानो तवायफ औरत होती ही नहीं या कहिये उसे औरत बनने ही नहीं दिया जाता .
तवायफ के रूप में ही संसार से विदा होना होता है लेकिन उसका आखिरी ख़त काफी है सारा
कुहासा छांटने को और उसे सम्पूर्ण औरत बनाने को ......मानो लेखक यही कहना चाहता हो
.
‘कादम्बरी का कन्यादान’ एक
अनोखे कन्यादान की कहानी है जिसे लेखक ने इतनी खूबसूरती से पिरोया है कि अंत में
पाठक को पता चलता है आखिर कन्यादान है किसका और ये ही किसी भी लेखक के लेखन की
खूबसूरती होती है कि अंत तक पाठक की जिज्ञासा बनी रहे और अंत आने पर वो मुस्कुराए
बिना न रह सके तो दूसरी तरफ सोचने पर विवश भी कि है आज भी भविष्य उज्जवल किताबों
का .ऐसी सोच सबकी हो तो क्या बात हो .
‘मृगतृष्णा’ एक अलग ही
कलेवर लिए .वैसे देखो तो आम लगे लेकिन पात्र की नज़र से देखो तो कितनी ख़ास . उसके
अंतस में जाने कितने ज़ख्म होंगे जिन्हें जब मरहम लगाया एक नया घाव हर बार ताज़ा
करता गया तो वहीँ कहीं न कहीं लेखक शायद ये कहना चाहता हो कि जब प्यार की तलाश को
मुकाम नहीं मिलता तो उस पर क्या बीतती है ये कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है . और
शायद यहीं से एक नयी सोच और नए जीवन की शुरुआत होती है कोई भटक सकता है इतनी
ज़िन्दगी की मायूसियों से तो कोई अवसादग्रस्त भी हो सकता है . अंत के बाद भी एक
कहानी स्वतः जन्म ले रही है ........एक ऐसी कहानी है मृगतृष्णा . शायद और पाठक
वहीँ तक पढ़ें जहाँ तक लेखक ने लिखा लेकिन जाने क्यों मुझे लगा इसके बाद भी ज़िन्दगी
तो रुकनी नहीं और जिसका ज़िन्दगी से विश्वास उठ जाता होगा , जिसने कदम कदम पर
ज़िन्दगी और किस्मत से धोखे खाएं हों क्या उसका मानसिक रूप से संतुलित रहना संभव हो
सकता होगा ? एक ऐसा प्रश्न छोडती है कहानी जो सोचने को मजबूर करती है . इस कहानी
के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं क्योंकि जो प्रस्तुति है वो मानो एक आधार दे रही है
एक नयी कहानी के जन्म को .
‘इत्तेफाक’ संबंधों और
किस्मत के कनेक्शन का एक ऐसा सम्मिश्रण है कि कोई नहीं चाहेगा उसके साथ ज़िन्दगी
में ऐसा कुछ घटे लेकिन वक्त और हालात कब किसे कहाँ ले जाते हैं और कैसे ज़िन्दगी को
पलट देते हैं कोई समझ ही नहीं सकता . शादी किसी से होनी हो और ले किसी और को आयें
. सामूहिक विवाह में हुए हादसे कैसे ज़िन्दगी को बदल देते हैं उसकी तस्वीर उकेरती
है वहीँ याद दिलाती है ऐसी ही कुछ कहानियों की जो हम पहले पढ़ा सुना और देखा करते
थे जैसे कहीं ट्रेन हादसा हो गया और दुल्हनें बदल गयीं या लम्बा घूँघट होने के
कारण बदल गयीं कुछ ऐसा ही दृश्य यहाँ उकेरा गया लेकिन उसको मोड़ यहाँ दुसरे ढंग से
देना ही लेखक के लेखन की सफलता है . बस यही है इत्तेफाक .
‘तुम याद आये’ मानो अकेले
जीवन जीने वाली लड़कियों के मन में उपजे खालीपन को तो परिभाषित कर ही रही है वहीँ
विवाह के बंधन को न स्वीकारने के कारण उपजे एकाकीपन के दोष को भी इंगित कर रही है
तो दूसरी तरफ ये भी कहना चाह रही है कि शरीर और उसकी जरूरतें एक सीमा तक ही या एक
उम्र तक ही होती हैं उसके बाद वो स्त्री हो या पुरुष सभी को एक साथ की जरूरत होती
ही है बस अपनी स्वतंत्रता न छीने इस डर से स्त्री और पुरुष एकाकी जीवन जीने का
निर्णय लेते हैं लेकिन एक दिन वो भी आभास करा ही देता है परिवार होने के महत्त्व
का , किसी के साथ के महत्त्व को .मानो लेखक कहना चाह रहा हो इंसान एक सामाजिक
प्राणी है तो उसे कभी न कभी समाज की जरूरत पड़ती है फिर वो उम्र का कोई भी पड़ाव हो
और साथ ही देह मुक्ति या यौन स्वतंत्रता तक ही नहीं होता स्त्री विमर्श . स्त्री
के अन्दर की स्त्री को भी जरूरत होती है एक साथ की ........
‘चेहरे पर चेहरों की किताब’
आज के फेसबुक के दौर के गुण और दोषों को तो व्याख्यातित करती ही है वहीँ एक पीढ़ी
जो अपने कर्तव्यों से जब मुक्त हो चुकी होती है तो उसे जीने को एक अवलंबन चाहिए
होता है और वो अवलंबन जब फेसबुक के रूप में मिलता है तो वो उसी को अपने समय बिताने
का जरिया बना लेता है लेकिन यहाँ भी अनेक गुण दोष हैं यदि उनसे सावधान रहे तो आप
सफलतापूर्वक अपने समय का सदुपयोग कर सकते हैं वर्ना अवांछित मन की शान्ति भंग होने
का भी डर बना रहता है . मौलिक और इंदु एक जोड़े के माध्यम से लेखक यही कहने का
प्रयास कर रहा है .
‘टीचर ऑफ़ द इयर’ कहानी
व्यवस्था पर कटाक्ष है. कैसे हर जगह चाटुकारिता ने अपने पाँव जमाये हुए हैं . कैसे
एक शिक्षक का सबसे बड़ा पुरस्कार उसका वो सम्मान है जो एक स्टूडेंट उसे देता है तो
कुछ लोगों के लिए जुगाड़ के कन्धों पर सवार होकर प्राप्त किया सम्मान ही मायने रखता
है ......इस दोहरे आकलन की कहानी के माध्यम से कहने की लेखक की कोशिश कामयाब रही
है .
‘फूल तितली भंवरा और खुशबू’
के माध्यम से लेखक कहना चाह रहा है कि जब यौवन की दहलीज पर पैर रखते हैं लड़के और
लड़कियां यदि उन्हें उस समय सही गाइड करने वाला मिल जाए तो उनका जीवन संवर सकता है
और वो सही हमसफ़र चुन सकते है नहीं तो कई बार समझ की कमी की वजह से अपनी जिंदगियां
भी खराब कर लेते हैं .
‘डैडी’ अंतिम कहानी और
लम्बी कहानी . एक पिता और पुत्र के मध्य वैसे तो हमारे समाज में अक्सर ३६ का सा
आंकड़ा होता है लेकिन यहाँ उससे उलट है . बेटे की सारी दुनिया ही उसके पिता हैं ,
बेशक माँ भी है और बहन भी लेकिन जितना अपने पिता से जुड़ा है उतना किसी से नहीं और
ये संभव हो सका तो सिर्फ इस वजह से कि अपने पिता में उसने हमेशा एक दोस्त पाया और
जब उसके पिता नहीं रहे तो मानसिक रूप से इतना विक्षिप्त हो गया कि उन्हें जिंदा ही
समझता रहा . जब घरवालों को अहसास हुआ तो उसका इलाज कराया गया जहाँ यही तथ्य निकल
कर आया कि हर इंसान को अपने जीवन में एक सच्चे दोस्त की जरूरत होती है और जब वो
उसे पा लेता है तो उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता ऐसा ही यहाँ होता है जब मोहित
को मोनिका में एक दोस्त , एक हमसफ़र मिलता है तो वो पत्थरों से अपना मोह तोड़ लेता
है जिन्हें अपने पिता के जाने के बाद अपना दोस्त समझने लगा था और जाने के बाद क्या
बचपन से ही उन्हें भी दोस्त मानता आया था . कहानी के माध्यम से लेखक ने बिमारी और
उसके इलाज के साथ मानवीय रिश्तों की महत्ता को भी दर्शाया है .
समग्रतः सैफ्रीन कहानी
संग्रह में कहानियों में मानवीय मूल्यों और जीवन की उलझनों से कैसे निजात पाया जाए
, उन पर लेखक ने काम किया है .धर्म हो या स्त्री पुरुष सम्बन्ध या प्रेम या सोशल
मीडिया हो या किताबें या व्यवस्था हर पहलू पर लेखक की नज़र है और हर पहलू को कहानी
के माध्यम से प्रस्तुत किया है जो बताता है लेखक की सोच का फलक कितना विस्तृत है .
सभी कहानियां छोटी छोटी . मगर गहन अर्थ लिए . अब तक लेखक के उपन्यासों से ही
वास्ता पड़ा था लेकिन लेखक की कहानियों पर भी अच्छी पकड़ है .मुकेश दूबे जी बधाई के
पात्र हैं जो थोड़े शब्दों में गहरे अर्थ समेटने का हुनर भी रखते हैं . उम्मीद है
पाठक को आगे भी ऐसी अनेक और परिपक्व कहानियां पढने को मिलती रहेंगी और उनकी कलम
अनवरत चलती रहेगी .अपनी अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ ...
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-02-2016) को "हम देख-देख ललचाते हैं" (चर्चा अंक-2267) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'