केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड द्वारा प्रकाशित "समाज कल्याण" पत्रिका (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय,भारत सरकार की मासिक पत्रिका) के अक्टूबर अंक2015 में प्रकाशित मेरा लिखा आलेख : बुजुर्ग : बोझ या धरोहर
श्री #kishoresrivastav जी व संपादन मंडल का हार्दिक आभार
आज के भागादौड़ी वाले समय में मानवीय संवेदनाओं की चूलें किस हद तक हिल गयी हैं
कि बुजुर्ग हमारे लिए हमारी ‘धरोहर हैं या बोझ’ पर सोचने को विवश होना पड़ रहा है
जो यही दर्शा रहा है कि कहीं न कहीं कोई न कोई कमी पिछली पीढ़ी के संस्कारों में रह
गयी है जो आज की पीढ़ी उन्हें वो मान सम्मान नहीं दे पा रही जिसके वो हकदार हैं .
घर में बड़े बुजुर्गों का होना कभी शान का प्रतीक होता था . उनके अनुभव और
दूरदर्शिता आने वाली पीढ़ियों में स्वतः ही स्थान्तरित होती जाती थी बिना किसी
अनावश्यक प्रयास के क्योंकि वो अपने आचरण से अहसास कराया करते थे . वो कहने में
नहीं करने में विश्वास रखते थे तो सुसंस्कार , मर्यादाएं और सफल जीवन के गुर इंसान
स्वतः ही सीख जाता था और उन्ही को आगे हस्तांतरित करता जाता था लेकिन आज के
आपाधापी के युग में न वो संस्कार रहे न वो मर्यादाएं और न ही वो रिश्तों में ऊष्मा
तो कैसे संभव है बुजुर्गों को धरोहर मान लेना ? जिन्होंने रिश्तों के महत्त्व को न
जाना न समझा न ही अपने से बड़ों को अपने बुजुर्गों को सहेजते हुए देखा उनसे कैसे
उम्मीद की जा सकती है कि वो सही आचरण करें और उन्हें वो ही मान सम्मान दें जो पहले
लोग दिया करते थे .
बुजुर्ग बोझ हैं या धरोहर ये तो हर घर के संस्कार ही निर्धारित करते हैं .
जिन्होंने अपने माता पिता को बुजुर्गों की सेवा करते देखा है वो ही आगे अपने जीवन
में इस महत्त्व को समझ सकते हैं क्योंकि जब उम्र बढ़ने लगती है तो शक्ति का ह्रास
होने लगता है , बुद्धि भी कमजोर होने लगती है , अंग शिथिल पड़ने लगते हैं ऐसे में
उन्हें जरूरत होती है एक बच्चे की तरह की देखभाल की और इसके लिए जरूरी है पूरा समय
देना लेकिन आज वो संभव नहीं है क्योंकि पति पत्नी दोनों नौकरी कर रहे हैं ऐसे समय
में वो अपने बच्चों को ही क्रेच के हवाले करते हैं तो कैसे संभव है बुजुर्गों पर
पूरा ध्यान देना .
कारण दोनों ही हैं कहीं ज़िन्दगी की आपाधापी तो कहीं संस्कार विहीनता लेकिन इस
चक्कर में बुजुर्ग न केवल उपेक्षित हो रहे हैं बल्कि वो बोझ भी महसूस होने लगते
हैं और इसका आज की पीढ़ी अंतिम विकल्प यही निकालती है या तो उन्हें वृद्ध आश्रम में
छोड़ देती है या उनसे मुँह ही फेर लेती है और अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त रहती है जो
कहीं से भी एक स्वस्थ समाज का संकेत नहीं है क्योंकि ज़िन्दगी सिर्फ सीधी सहज सरल
सपाट सड़क नहीं इसमें ऊबड़ खाबड़ रास्ते भी हैं जहाँ अनुभवों की दरकार होती है , किसी
अपने के ऊष्मीय स्पर्श की आवश्यकता भी होती है , किसी अपने के सिर पर हाथ की
अपेक्षा भी होती है और ये तब समझ आती है जब इंसान उन परिस्थितियों से गुजरता है
लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है .
इसलिए जरूरी है वक्त रहते चेता जाये ताकि उनके अनुभवों और आशीर्वाद से एक सफल
जीवन जिया जा सके क्योंकि बोझ मानते हुए वो ये भूल जाता है कि एक दिन वो भी इन्ही
परिस्थितियों से गुजरेगा तब क्या होगा यदि बोझ मानने से पहले इतना यदि अपने बारे
में ही सोच ले तो कभी उन्हें धरोहर मानने से इनकार नहीं करेगा . वर्ना आज तो
बुजुर्ग सिवाय बोझ के कुछ और प्रतीत ही नहीं होते .
जो लोग उन्हें बोझ मानते हैं वो नहीं जानते वो क्या खो रहे हैं और जो धरोहर
मानते हैं उनके लिए वो वास्तव में एक अमूल्य उपहार से कम नहीं होते क्योंकि बाकि
सब ज़िन्दगी में आसानी से मिल जाता है लेकिन बुजुर्गों का निस्वार्थ प्यार, अनुभव और
अपनापन किसी बाज़ार से ख़रीदा नहीं जा सकता .
वंदना गुप्ता
डी – 19 , राणा प्रताप रोड
आदर्श नगर
दिल्ली --- 110033
मोबाइल : 09868077896
umda lekh
जवाब देंहटाएंumda lekh
जवाब देंहटाएंबुजुर्ग धरोहर ही हैं .. अनमोल धरोहर ...
जवाब देंहटाएंमेरी पोस्ट पर आइयेगा मेरे ब्लॉग में शामिल होकर गौरान्वित करें
http://merisachhibaat.blogspot.in/2015/10/blog-post.html
धरोहर
जवाब देंहटाएंसार्थक और समाज को सचेत करता आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें ---
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
सादर