घोर संघर्ष काल है
नहीं पता
हिन्दी का या हिन्दी के साहित्यकारों का
या फिर दोनों का
क्योंकि
मौज तो राजनीतिज्ञों की है
या चाटुकारों की
हिंदी की बाँह कौन पकड़ता है
सबको बस अपना मकसद ही दिखता है
वो तो कल भी अवांछित थी
आज भी है और कल भी रहेगी
क्योंकि
जो राजभाषा से राष्ट्रभाषा तक का सफ़र तय न कर पायी
या कहिये
जिसे ये सफ़र तय नहीं करने दिया गया
उस हिन्दी का भी भला कोई उज्जवल भविष्य हुआ
आओ शंख ध्वनि करो
आओ उद्घोष करो
आओ अपना परचम फहराओ
कि
हमने तय कर ली है एक और दूरी
तो क्या हुआ जो
चार दिन में चार कोस ही चले हों
बस इतना सा ही तो है मकसद
विश्व पटल पर लगा कर बिंदी
हमने अपना परचम फहरा दिया
हिन्दी का नाम बढ़ा दिया
अब गर्व से कहो
जय हिन्दी जय भारत
विश्व हिंदी सम्मलेन में शामिल होना खाला जी का घर नहीं जनाब
( सन्दर्भ : १० वां विश्व हिंदी सम्मलेन )
जय हिन्दी जय भारत
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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