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शनिवार, 25 अप्रैल 2015

मिट्टियों की सिर्फ कहानियां होती हैं निशानियाँ नहीं .......

करते रहे दोहन 
करते रहे शोषण 
आखिर सीमा थी उसकी भी 
और जब सीमाएं लांघी जाती हैं 
तबाहियों के मंज़र ही नज़र आते हैं 


कोशिशों के तमाम आग्रह 
जब निरस्त हुए 
खूँटा तोडना ही तब  
अंतिम विकल्प नज़र आया 
वो बेचैन थी .....जाने कब से 
वो बेचैनी यूँ बाहर आ गयी 
थरथरा गयी कंपकंपा गयी
धरा की हलचल 
समूचा वजूद हिला गयी 

रह रह उठते रुदन की हलचल से 
बेशक तुम दहल उठो अब 
मगर उसकी ख़ामोशी 
उसकी शांति 
उसकी चुप्पी से सहमे तुम 
आज खुद को कितना ही कोसो 
जानती है वो 
न बदले हो न बदलोगे कभी 

सब्र का आखिरी इम्तिहान और आखिरी तिलक भी 
क्या कभी कोई यूं लगाया करता है का इल्ज़ाम 
सहना नियति है उसकी 
फिर वो धरा हो या स्त्री .........
ओ अजब फितरत के मालिक 
उस पर कहते हो भूचाल आ गया !!!


जानते हो न 
मिट्टियों की सिर्फ कहानियां होती हैं निशानियाँ नहीं .......

4 टिप्‍पणियां:

  1. "मिटटी की सिर्फ कहानियां होती है निशानियाँ नहीं" बहुत सुंदर रचना. कॉफी समय बाद फिर ब्लॉग में आने की कोशिश कर रही हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग पर पधारें. धन्यबाद.

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  2. कुदरत का कहर है ये ... इंसान जागरूक कहाँ रह पाया है तभी तो ये मार झेल रहा है ... अच्छी रचना ..

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  3. सही है न बदले हो न बदलोगे कभी
    सहना नियति है उसकी
    फिर वो धरा हो या स्त्री ...भावपूर्ण पंक्तियाँ। बहुत ही अच्छी रचना।

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  4. प्रकृति सहे कितना आखिर!
    जागरूकता ही बचायेगी!

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