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शनिवार, 25 अप्रैल 2015

मिट्टियों की सिर्फ कहानियां होती हैं निशानियाँ नहीं .......

करते रहे दोहन 
करते रहे शोषण 
आखिर सीमा थी उसकी भी 
और जब सीमाएं लांघी जाती हैं 
तबाहियों के मंज़र ही नज़र आते हैं 


कोशिशों के तमाम आग्रह 
जब निरस्त हुए 
खूँटा तोडना ही तब  
अंतिम विकल्प नज़र आया 
वो बेचैन थी .....जाने कब से 
वो बेचैनी यूँ बाहर आ गयी 
थरथरा गयी कंपकंपा गयी
धरा की हलचल 
समूचा वजूद हिला गयी 

रह रह उठते रुदन की हलचल से 
बेशक तुम दहल उठो अब 
मगर उसकी ख़ामोशी 
उसकी शांति 
उसकी चुप्पी से सहमे तुम 
आज खुद को कितना ही कोसो 
जानती है वो 
न बदले हो न बदलोगे कभी 

सब्र का आखिरी इम्तिहान और आखिरी तिलक भी 
क्या कभी कोई यूं लगाया करता है का इल्ज़ाम 
सहना नियति है उसकी 
फिर वो धरा हो या स्त्री .........
ओ अजब फितरत के मालिक 
उस पर कहते हो भूचाल आ गया !!!


जानते हो न 
मिट्टियों की सिर्फ कहानियां होती हैं निशानियाँ नहीं .......

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

जा बेटी जा ..........जी ले अपनी ज़िन्दगी !!!

हो जाती हूँ कभी कभी बेहद परेशां 
जब भी बेटी कहीं जाने को कहती है 
और मेरी आँखों के आगे 
एक विशालकाय मुखाकृति आ खड़ी होती है 
जिसका कोई नाम नहीं , पहचान नहीं , आकृति नहीं 
लेकिन फिर भी उसकी उपस्थिति 
मेरी भयाक्रांत आँखों में दर्ज होती है 
जबकि बेटे द्वारा किये गए इसी प्रश्न पर 
मैं निश्चिन्त होती हूँ 


उसके आँखों में उठे , ठहरे 
अनगिनत प्रश्नों से 
घायल होती मैं 
अक्सर अनुत्तरित हो जाती हूँ 
नज़र नहीं मिला पाती 
जवाब नहीं दे पाती 
बेटी और बेटे में फर्क न करने वाली मैं 
बराबरी का परचम लहराने वाली मैं 
उस वक्त हो जाती हूँ 
निसहाय , असहाय , उदास , परेशां , हताश 

एक भयावह समय में जीती मैं 
आने वाली पीढ़ी के हाथ में 
सुकून के पल संजो नहीं पाती 
फिर काहे का खुद को 
स्त्री सरोकारों का हितैषी समझती हूँ 
कहीं महज ढकोसला तो नहीं ये 
या मेरा कोरा भ्रम भर है 
तमाम स्त्री विमर्श 
जानते हुए ये सत्य 
कि 
जंगल में राज शेर का ही हुआ करता है 

विरोधाभासी मैं हूँ , मेरी सोच है या इस दुनिया का यही है असली चेहरा 
जो मुझे अक्सर डराता है 
नींद मेरी उड़ाता है 
और यही प्रश्न उठाता है 
आखिर क्यों दोनों के लिए नहीं है ये संसार समान ?
हूँ इसी पसोपेश में ............

समय की रेत में जाने कौन सा बालू मिला है चाहूँ तो भी अलग नहीं कर पाती 
क्या होगा संभव कभी जब समय के दर्पण में छलावों का दीदार न हो 
और कह सकूं सुकूँ से मैं 
बिना किसी प्रतिबन्ध के 
जा बेटी जा ..........जी ले अपनी ज़िन्दगी ?