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गुरुवार, 19 जून 2014

मुझे मेरे अक्स ने आवाज़ दी………

हाथ उठाये यूँ
मुझे मेरे अक्स ने आवाज़ दी
सैंकड़ों कहानियां बन गयीं
दर्जनों अक्स चस्पां हो गए
कुछ गर्म रेतीले अहसासों के
बेजुबान लफ्ज़ रूप बदल गए
कहीं एक डाल से उड़ता
दूजी ड़ाल पर बैठता मेरा मन पंछी
उड़ान भरने को आतुर दिखता
तो कहीं ख़ामोशी के गहरे
अंधे कुएं में दुबक जाता
कहीं कोई चाहत की उमंग
ऊंगली पकडे ख्वाब को टहलाती
कहीं कोई उम्मीद की सब्ज़परी
अपनी बाहों के घेरे में
स्वप्नों के घर आबाद करती
कहीं गडमड होते ख्वाबों के दरख़्त
कहीं चेतना का शून्य में समाहित होना
एक अजब से निराकार में साकार का
आभास कराता विद्युतीय वातावरण
का उपस्थित होना
ना जाने कितनी अजन्मी कहानियों का जन्म हुआ
ना जाने कितने वजूदों को दफ़न किया
ना जाने कितने कल्पनाओं के पुलों पर
उड़ानों को स्थगित किया
फिर अक्स में ही सारा दृश्य सिमट गया
और रह गया
खाली हाथों को उठाये यूँ अकेला अस्तित्व मेरा
शून्य का कितना ही विस्तार करो
सिमट कर शून्य ही बचता है

और फिर अक्स की दुरुहता तो अक्स में ही सिमटी होती है
………

16 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (20.06.2014) को "भाग्य और पुरषार्थ में संतुलन " (चर्चा अंक-1649)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. शून्य का कितना ही विस्तार करो
    सिमट कर शून्य ही बचता है
    और फिर अक्स की दुरुहता तो अक्स में ही सिमटी होती है ………

    ..बिल्कुल सच..बहुत गहन और प्रभावी रचना...

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  3. हमेशा की तरह सुंदर अभिव्यक्ति ।

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  4. शून्य का कितना ही विस्तार करो
    सिमट कर शून्य ही बचता है
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति वंदनाजी

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  5. शून्य का कितना ही विस्तार करो
    सिमट कर शून्य ही बचता है
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति वंदनाजी

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी इस अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (29-06-2014) को ''अभिव्यक्ति आप की'' ''बातें मेरे मन की'' (चर्चा मंच 1659) पर भी होगी
    --
    आप ज़रूर इस चर्चा पे नज़र डालें
    सादर

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  7. और रह गया
    खाली हाथों को उठाये यूँ अकेला अस्तित्व मेरा...कि‍तना सही लि‍खा है आपने

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