बालार्क की पाँचवीं किरण :
सुशील कुमार किसी पहचान के मोहताज नहीं। अपनी कविताओं में विशिष्टता देना ही उनकी मुख्य पहचान है और इसी धर्म को उन्होंने अपनी कविताओं में निभाया तभी जमीनी हकीकतों से परे पहाड़ी कठिनाइयों पर कवि की दृष्टि पड़ती है तो कराह उठती है और इस प्रकार वेदना स्वर पाती है :
"पहाड़ी लड़कियां " जैसा नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि पहाड़ी जीवन यूँ भी आसान नहीं होता उस पर वहाँ की विषम परिस्थिति में कैसे पहाड़ी लड़कियाँ जीती हैं उसका बहुत ही सटीक चित्रण किया है। एक तरफ वहाँ की उन्मुक्तता पहाड़ी स्त्री के जीवन की जीवंतता को चित्रित करती है तो दूसरी तरफ कठिन परिस्थितियों से लड़ती स्त्री की विषमता से भी जब दो चार होती है तब पहाड़ से नीचे आना उनकी मजबूरी होती है और उस मजबूरी का कैसे बिचौलिए फायदा उठाते हैं उसका मार्मिक चित्रण दर्शाता है कवि के संवेदनशील ह्रदय को ....... कवि का डर जायज है कि इस तरह तो पहाड़ों के साथ क्या इन उन्मुक्त चिड़ियों की चहचहाट भी एक दिन ख़त्म हो जायेगी एक ऐसी समस्या की तरफ ध्यान दे रहा है जहाँ किसी की नज़र नहीं पड़ती :
"उनकी पत्थर सी काया को भी /कुचल रहे हैं जब तब / बिचौलिए महाजन, दिक्कु सब / वहाँ कब तक यूं ही अलापती रहेंगी/ भग्न होती ये ह्रदयकंठ -वीणाएँ ?
"पहाड़ी नदी के बारे में " कहते हुए एक तारतम्य बैठाया है कवि ने स्त्री के जीवन और नदी में, जो बह रही हैं युगों से और दे रही है अपनी तकलीफों और दुखो की आहुति नदी के गर्भ में तब जाकर उसके सुन्दरतम स्वरुप का दर्शन होता है जहाँ प्रेम , वात्सल्य आकार पाते हैं. अपने दर्द को अपने ही मिटटी के सकोरों में भरकर जब पहाड़ी स्त्री चलती है तो उस पीड़ा को सिर्फ पहाड़ या नदी ही महसूस कर सकते हैं क्योंकि नदी सा जीवन चलने को इंगित करता है फिर चाहे कैसी ही विषम परिस्थिति हो और होठों पर मुस्कराहट तभी थिरकती है जब स्त्री अपनी पीड़ा को किसी अँधेरे कोटर में सुरक्षित रख आगे बढ़ती है।
"हरिया पूछता है कब लौटोगी सुगनी परदेस से " के माध्यम से पहाड़ी लड़की का किसी शहर में ब्याह के चले जाने के बाद कैसा महसूस करते हैं पहाड़ पर रहने वाले उसका बहुत ही मार्मिक चित्रण है जिसमे यूँ लगता है जैसे अगर सुगनी है तभी पहाड़ जीवंत हैं , वहाँ जीवन है अगर वो नहीं तो कुछ नहीं जैसे एक ख़ामोशी ने अपना डेरा डाला हो , जैसे जीवन उसी मोड़ पर रुक गया हो जहाँ से सुगनी या कहो कोई लड़की विदा होती है बस वहीँ ज़िन्दगी रुक गयी हो :
" पूरा पहाड़ , नदी , झरना , ताल तलैया / यानि कि तराई पर का पूरा गाओं ही / उजाड़ सा दीखता है तुम बिन / सब के सब तुम्हारे लौटने की / बाट जोह रहे हैं कब से। "
"ठूँठ होते पहाड़ " में पहाड़ के भविष्य पर कवि ने प्रहार किया है कैसे कुछ राजनीतिज्ञ अपनी राजनीती की रोटी सेंकने के लिए लोकलुभावन वायदे करके पहाड़ों पर अपने विषैले दांत गड़ाते हैं और पहाड़ी लोगों का जीवन , लुप्त होती उनकी जातियाँ , क्या इन में से किसी पर भी किसी की निगाह होती है या ये सब कोरे सब्ज़बाग हैं और पहाड़ के दर्द हमेशा की तरह अंतहीन ही हैं। एक गहरा , करारा कटाक्ष और पीड़ा का चित्रण किया है :
" मैं ठिठकता हूँ / पहाड़ के पक्ष में बने / क़ानून की / धाराओं से और पूछता हूँ स्वयं से / कि वैन संरक्षण अधिनियमों के / दलदल में हांफते पहाड़ के / सुख , स्वप्न और भविष्य क्या हैं ?
कवि ने कविताओं के माध्यम से अपना कवि धर्म पूरी शिद्दत से निभाया है और इस तरह वर्णन किया है मानो सब सामने ही घटित हो रहा हो और यही किसी भी लेखक के लेखन की सबसे बड़ी कसौटी होता है कि दृश्य हो या पीड़ा उसे जीवंत कर दे और उसे पूरा करने में कवि पूरी तरह से सक्षम हैं।
मिलती हूँ अगली कड़ी में एक और कवि के साथ ………
सटीक समीक्षा
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंपोस्ट का लिंक कल सुबह 5 बजे ही खुलेगा।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-12-13) को "नीड़ का पंथ दिखाएँ" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1462 पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर सटीक समीक्षा...
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (15-12-13) को "नीड़ का पंथ दिखाएँ" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1462 पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंसुंदर समीक्षा !
जवाब देंहटाएंSUSHIL KUMAR MERE PRIY KAVI HAIN .
जवाब देंहटाएंUNKEE SASHAKT LEKHNI KO SALAAM .
BADHIYA SAMEEKSHA KE LIYE AAPKO
BADHAAEE .
सुन्दर समीक्षा ... शुशील जी कविताओं का जाना माना नाम हैं ...
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