आँख में उगे कैक्टस के जंगल में छटपटाती चीख का लहुलुहान अस्तित्व कब हमदर्दियों का मोहताज हुआ है फिर चाहे धुंधलका बढता रहा और तुम फ़ासलों से गुजरते रहे ……ना देख पाने की ज़िद पर अडी इन आँखों का शगल ही कुछ अलग है …………नहीं , नहीं देखना ………मोहब्बत को कब देखने के लिये आँखों की लालटेन की जरूरत हुयी है …………बस फ़ासलों से गुजरने की तुम्हारी अदा पर उम्र तमाम की है तो क्या हुआ जो तुम्हें मैं नज़र ना आयी , तो क्या हुआ जो तुम्हारे कदमों में ना इस तरफ़ मुडने की हरकत हुयी ………इश्क के अंदाज़ जुदा होते हैं फ़ासलों में भी मोहब्बत के खम होते हैं ………जानाँ !!!
अब मुस्कुराती हूँ मैं अपने जीने के अन्दाज़ पर ………फिर क्या जरूरत है रेगिस्तान में भटकने की …………कैक्टस के फ़ूल यूँ ही नहीं सहेजे जाते …………उम्र फ़ना करनी पडती है धडकनो का श्रृंगार बनने को…………और मैंने तो खोज लिया है अपना हिमालय …………क्या तुम खोज सकोगे कभी मुझमें , मुझसा कुछ ………यह एक प्रश्न है तुमसे ओ मेरे !
अब मुस्कुराती हूँ मैं अपने जीने के अन्दाज़ पर ………फिर क्या जरूरत है रेगिस्तान में भटकने की …………कैक्टस के फ़ूल यूँ ही नहीं सहेजे जाते …………उम्र फ़ना करनी पडती है धडकनो का श्रृंगार बनने को…………और मैंने तो खोज लिया है अपना हिमालय …………क्या तुम खोज सकोगे कभी मुझमें , मुझसा कुछ ………यह एक प्रश्न है तुमसे ओ मेरे !
वाह बहुत बढ़िया प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ,
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रश्न है...!
जवाब देंहटाएंरचना भी सुन्दर है!
गहरा मंथन ... मैंने तो खोज लिए है अपना हिमालय ... क्या आ सकोगे उन ऊंचाइयों तक ... छू सकोगे उन्हें ... शायद कभी नहीं ... अंदर की कशमकश को दिए शब्द ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सशक्त.
जवाब देंहटाएंरामराम.
ख़ुद से जूझता हुआ प्रश्न...
जवाब देंहटाएंजिससे पूछा गया है प्रश्न... वही समझ सके शायद...
~सादर!!!
वाह! बहुत सुंदर.
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जवाब देंहटाएंप्रश्न सुन्दर है पर उत्तर ......?????????
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बढ़िया प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंसशक्त और प्रभावशाली रचना.....
जवाब देंहटाएंउद्वेलित करते प्रश्न !
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