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रविवार, 12 मई 2013

फिर फसल को काटने से डर कैसा ?

पलायनवादिता के अंकुर
फूट ही जाते हैं एक दिन
जो बीज रोप दिए जाते हैं
बचपन में ही
हाँ ..........बचपन में
जब कुछ कम ना कर सको
तो छोड़ दो कह देना
जब कोई मुश्किल आये
तो ईश्वर पर छोड़ देना
मगर कभी मुश्किल का
सामना करने के लिए
ना प्रेरित करना
कभी खुद के हौसलों पर
विश्वास करने के लिए ना कहना
और फिर उम्मीद करना
बस ये पहाड़ खोद कर सडकें बना दे
कैसे संभव है ...........
जब जीवन से लड़ना ही नहीं सिखाया
जब कठिनाइयों से जूझने का
जज्बा ही ना पनपाया
आसान होता है
किसी भी बात से पलायन
आसान रास्ता तो सभी अपना लेते हैं
और उन रास्तों पर चलने वाले
कभी मील का पत्थर नहीं बनाते
हिमालय पर तिरंगा तो जीवट ही फहराते हैं .........पलायनवादी नहीं
पलायनवादी प्रवृत्ति  के लिए
शायद कहीं ना कहीं हम ही जिम्मेदार हैं
फिर क्यों कह देते हैं
ये अपना कर्त्तव्य सही ढंग से नहीं निभाता
बूढ़े माँ बाप की सेवा नहीं करता
आखिर पलायनवादी गुणों के पकने
का भी तो समय आता ही है एक दिन
फिर फसल को काटने से डर कैसा ?

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सटीक, पलायन वाद से कर्तव्य परायणता ज्यादा अच्छी है.

    रामराम.

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  2. सच है जुझारोपन खत्म हो जाता है ...
    लड़ने का साहस जरूरी है जीवन में ..

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  3. शायद इसलिए ही संघर्ष को बचपन से अपनाना जरूरी है ...

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  4. जुझारूपन से पलायनवादिता भी भाग जाती है, गंभीर विषय पर सुंदर रचना.

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  5. कितना सटीक विवेचन लिए पंक्तियाँ .....

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  6. बचपन से ही सिखाना चाहिए संघर्ष करना .... सटीक

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  7. बहुत शानदार अभिवयक्ति

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