मौन हो जाती है मेरी कलम
मौन हो जाती हैं मेरी संवेदनायें
मौन हो जाती है मेरी सोच
मौन हो जाती हैं मेरी भावनायें
अब तुम तक आते - आते
जानते हो क्यों
तुमने कोई सिरा छोडा ही नहीं
जुडने का या कहो जोडने का
सुनो
अब ना प्रेम उपजता
ना भावनायें हिलोरें लेतीं
ना कोई स्पन्दन होता
क्योंकि
हम आदत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
हम चाहत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
हम राहत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
कहो फिर क्या बचा
जो बाँधे रखे उन धागों को
जहाँ सिवाय गांठों के कुछ बचा ही ना हो
ना …………अब नही दूँगी तुम्हें उलाहना कोई
क्योंकि
कोई ख्वाहिश ही नही बची तुमसे
बोलूँ , बतियाऊँ , हँसूँ या रोऊँ
ऐसा भी कोई स्रोता नहीं फ़ूट रहा
देखा ………द्रव्यमान
कितनी निरीहता छा गयी है
कितनी विवशता आ गयी है
जहाँ संज्ञाशून्य सी हो गयी हूँ
और सोच रही हूँ
अभी तो पहला ही पडाव गुजरा है
सफ़र का ……………
आगे क्या होगा
क्या ये बंधन
ये संबंध
ये रिश्ता
ये समझ
इसे कोई मुकाम भी मिलेगा
या यूँ ही हाथियों के पैर तले कुचल जायेगा……चींटी बनकर
सच कहूँ
उम्र के इस पडाव का
सबको इंतज़ार होता है
मुझे भी था ………मगर
वक्त ने नमी छोडी ही नहीं
अब कैसे मन की शाखायें
फिर से हरी भरी हो जायें
कैसे इन पर कोई
कँवल खिल जाये
नहीं , नही………दोषारोपण नहीं कर रही
बस वक्त की कामयाब कोशिशों को देख रही हूँ
और सोच रही हूँ
क्यों जीत गया वक्त हमसे
हमारे संबंध से
क्या कमी रह गयी थी
जिसका फ़ायदा वक्त उठा गया
और हमें बिखरा गया
शायद
कहीं ना कहीं
ना चाहते हुये भी
हमारे दम्भ , हमारा अहम
ही वक्त के हाथों का खिलौना बन गया
और वो अपना काम कर गया
देखो अब ………क्या बचा ?
ना तुम मुझमें
ना मैं तुममें
दो खोखले अस्थिपंजर
देह का लिबास ओढे
दुनियावी रस्म निभाने के लिये
कटिबद्ध हैं ………ज़िन्दगी रहने तक
आखिर जिम्मेदारियों से तो
नहीं मूँह मोडा जा सकता ना
चाहे रिश्ता कचरे के डिब्बे में पडा
सडांध मारता अपनी आखिरी साँस ही क्यों ना ले रहा हो
जीना है अब हमें इसी तरह
क्योंकि
माफ़ी माँगने या देने की सीमा से पार आ चुके हैं हम
क्योंकि
अब हमारे बीच आ चुकी है अभद्रता , असंयमता
ना केवल आचरण में बल्कि शब्दों में भी
फिर कैसे संभव है
नव निर्माण , नवांकुर , नव सृजन
बिना नमी के ……………
मौन की कचोट , मौन का वार और मौन का संग्राम
शब्दहीन , भावहीन , रसहीन कर गया मुझको …………और
जीवन की तल्खियों ने स्वादहीन बना दिया मुझको
क्या है कोई टंकारता घंटा उस ओर
मौन हो जाती हैं मेरी संवेदनायें
मौन हो जाती है मेरी सोच
मौन हो जाती हैं मेरी भावनायें
अब तुम तक आते - आते
जानते हो क्यों
तुमने कोई सिरा छोडा ही नहीं
जुडने का या कहो जोडने का
सुनो
अब ना प्रेम उपजता
ना भावनायें हिलोरें लेतीं
ना कोई स्पन्दन होता
क्योंकि
हम आदत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
हम चाहत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
हम राहत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
कहो फिर क्या बचा
जो बाँधे रखे उन धागों को
जहाँ सिवाय गांठों के कुछ बचा ही ना हो
ना …………अब नही दूँगी तुम्हें उलाहना कोई
क्योंकि
कोई ख्वाहिश ही नही बची तुमसे
बोलूँ , बतियाऊँ , हँसूँ या रोऊँ
ऐसा भी कोई स्रोता नहीं फ़ूट रहा
देखा ………द्रव्यमान
कितनी निरीहता छा गयी है
कितनी विवशता आ गयी है
जहाँ संज्ञाशून्य सी हो गयी हूँ
और सोच रही हूँ
अभी तो पहला ही पडाव गुजरा है
सफ़र का ……………
आगे क्या होगा
क्या ये बंधन
ये संबंध
ये रिश्ता
ये समझ
इसे कोई मुकाम भी मिलेगा
या यूँ ही हाथियों के पैर तले कुचल जायेगा……चींटी बनकर
सच कहूँ
उम्र के इस पडाव का
सबको इंतज़ार होता है
मुझे भी था ………मगर
वक्त ने नमी छोडी ही नहीं
अब कैसे मन की शाखायें
फिर से हरी भरी हो जायें
कैसे इन पर कोई
कँवल खिल जाये
नहीं , नही………दोषारोपण नहीं कर रही
बस वक्त की कामयाब कोशिशों को देख रही हूँ
और सोच रही हूँ
क्यों जीत गया वक्त हमसे
हमारे संबंध से
क्या कमी रह गयी थी
जिसका फ़ायदा वक्त उठा गया
और हमें बिखरा गया
शायद
कहीं ना कहीं
ना चाहते हुये भी
हमारे दम्भ , हमारा अहम
ही वक्त के हाथों का खिलौना बन गया
और वो अपना काम कर गया
देखो अब ………क्या बचा ?
ना तुम मुझमें
ना मैं तुममें
दो खोखले अस्थिपंजर
देह का लिबास ओढे
दुनियावी रस्म निभाने के लिये
कटिबद्ध हैं ………ज़िन्दगी रहने तक
आखिर जिम्मेदारियों से तो
नहीं मूँह मोडा जा सकता ना
चाहे रिश्ता कचरे के डिब्बे में पडा
सडांध मारता अपनी आखिरी साँस ही क्यों ना ले रहा हो
जीना है अब हमें इसी तरह
क्योंकि
माफ़ी माँगने या देने की सीमा से पार आ चुके हैं हम
क्योंकि
अब हमारे बीच आ चुकी है अभद्रता , असंयमता
ना केवल आचरण में बल्कि शब्दों में भी
फिर कैसे संभव है
नव निर्माण , नवांकुर , नव सृजन
बिना नमी के ……………
मौन की कचोट , मौन का वार और मौन का संग्राम
शब्दहीन , भावहीन , रसहीन कर गया मुझको …………और
जीवन की तल्खियों ने स्वादहीन बना दिया मुझको
क्या है कोई टंकारता घंटा उस ओर
जो खोल सके
मेरे मन मन्दिर के कपाटों को दुर्लभ देव दर्शन हेतु???
छीजती ज़िन्दगी और मेरा संग्राम अब हार जीत से परे हो चुका है
क्योंकि
कोई जीते या हारे ...हार निश्चित ही दोनो तरफ़ से मेरी ही है ...सनम !!!
मेरे मन मन्दिर के कपाटों को दुर्लभ देव दर्शन हेतु???
छीजती ज़िन्दगी और मेरा संग्राम अब हार जीत से परे हो चुका है
क्योंकि
कोई जीते या हारे ...हार निश्चित ही दोनो तरफ़ से मेरी ही है ...सनम !!!
लकीरों में क्या रखा है
जवाब देंहटाएंआज शब्दों का अनोखा मेल देखा है
ऐसा किसी के साथ ना हो यही मेरी दुआ है
it's just amazing poem ...अगर मैं तारीफ में और कुछ कहने की भी सोंचू तो शायद शब्द नहीं हैं ...बधाई!!
जवाब देंहटाएंजीवन की धुरी प्रेम है ओर जब वो नहीं तो सब कुछ बेमाना ही होता है ... बाकी कुछ नहीं रहता ...
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक और सार्थक रचना ...
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने... दम्भ , अहम रिश्तों को घुन की तरह खोखला कर देते हैं... मार्मिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअन्दर अन्दर कौन लड़ रहा,
जवाब देंहटाएंशब्द थक गये, मौन लड़ रहा।
दंभ और अहम रिस्तो को खोखला कर देता है,बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुती।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव आदरेया ||
जवाब देंहटाएंजती जात्रा पर चला, छोड़-छाड़ कर मोह |
उलझे या सुलझे सिरा, क्या लेना अब टोह |
क्या लेना अब टोह, हुआ रविकर आरोही |
करे भोग से द्रोह, आज अपना है वो ही |
सुनिए कृष्ण पुकार, गोपियाँ हाथ मींजती |
प्रभु पथ पर यह गोप, जिन्दगी तेज छीजती ||
आज भी बेबसी की कहानी
जवाब देंहटाएंAAPKEE KAVYA - PRATIBHA KA NIKHAAR
जवाब देंहटाएंIS KAVITA MEIN HAI . BAHUT KHOOB !
सुन्दर रचना आपको साधुवाद
जवाब देंहटाएंवंदना जी स्त्री मन की व्यथा को बखूबी ब्यान किया आपने
जवाब देंहटाएंगौर कीजिएगा....
गुज़ारिश : ''........तुम बदल गये हो..........''
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि कि चर्चा कल मंगलवार 12/213 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है
जवाब देंहटाएंद्वंद
जवाब देंहटाएंज़िंदगी के मौन और मुखर होने की प्रक्रिया कुछ इसी तरह आगे बढ़ती रहती है।
जवाब देंहटाएंएक उत्कृष्ट कविता।
शब्द कुछ जीते नहीं
जवाब देंहटाएंशब्द कुछ कहते नहीं
शब्द जमकर बैठते हैं
कोई करवट बदलते नहीं
ववाह वंदना जी , एकदम अद्भुत अभ्व्यक्ति बधाई
जीवन की परिस्थितियों को और आपस के सम्बन्धों को विस्तार से ज्यों का त्यों रख दिया है ....
जवाब देंहटाएंबेहद सशक्त भाव लिये ... उत्कृष्ट प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार
badi sugadhdta ke saath parton ko khola hai.....
जवाब देंहटाएंआपके शब्द उस कड़वाहट और बेचैनी का एहसास दिला गये ... जिसमें सराबोर ये रचना है...
जवाब देंहटाएं~सादर!!!
प्रेम ही आधार है जिस पर जिन्दगी पाँव टिका सकती है विस्वास के साथ । वह नही तो कुछ भी नही । पर वह आधार क्या सबको मिल पाता है ।
जवाब देंहटाएंप्रेम बिना सब सून
जवाब देंहटाएंप्रेम की डोर मजबूत होनी चाहिए
बहुत सुन्दर तरीके से मनोभाव का चित्रण