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शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

अधूरी हसरतों का ताजमहल

जो तफ़सील से सुन सके
जो तफ़सील से कह सकूँ
वो बात , वो फ़लसफ़ा
एक इल्तिज़ा, एक चाहत
एक ख्वाहिश, एक जुनून
चढाना चाहती थी परवान
ढूँढती थी वो चारमीनार
जिस पर लिख सकती वो इबारत
मगर बिना छत की दीवारों के घर नही हुआ करते
जान गयी थी ……तभी तो
खामोशी की कब्रगाह मे सुला दिया हर हसरत को
क्योंकि
दीवानगी की हद तक चाहने वाले ताजमहल के तलबगार नही होते
और मुझे तुम कभी मिले ही नही
तो किसे सुनाती दास्तान-ए-दिल
पास होकर भी दूरियों ने कैसी लक्ष्मण रेखा खींची है
सोचती हूँ ..........
एक मकबरा बनवा दूं
और उस पर लिखवा दूं
अधूरी हसरतों का ताजमहल ............है ना सनम !!!!!!!!!!

20 टिप्‍पणियां:

  1. अधूरी हसरतों का ताजमहल .... अलग सी सोच

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  2. ये हुई ना बात . मकबरा बनवा ही दीजिये

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  3. ताजमहल की नई पहचान....
    "अधूरी हसरतों का ताजमहल"

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  4. बढ़िया लिखा है आपने | बहुत खूब |

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  5. अनुपम प्रयोग. हसरतों के सिलसिले इसी तरह से चलते रहना चाहिये.

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  6. ह्म्म्म.....
    शायद कुछ सुकून यूँही मिल जाए....

    सस्नेह
    अनु

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  7. बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही भावनामई रचना.बहुत बधाई आपको

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  8. वाह,.... .....बहुत ही सुन्दर लगी पोस्ट ।

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  9. खुदा ने पूछा कि हसरतों कि आजमाइश के किये तैयार रहो ,आपकी रचना पड़कर याद आ गई ये पंक्तियाँ |आभार सुन्दर पोस्ट हेतु |

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