बख्श दो काल बख्श दो अब तो
जैसे पेड़ों से झरती हैं पत्तियां पतझड़ में
जैसे टप टप टपकते हैं आंसू पीड़ा में
जैसे झरता है सावन सात दिन बिना रुके
कुछ ऐसे लील रहे हो तुम जीवन
वो जो अभी बैठा था महफ़िल में
बीच से उठ चला जाता है अचानक
मगर कहाँ और क्यों?
क्यों जरूरी है महफ़िलों को तेज़ाब से नहलाना?
क्यों जरूरी है हँसते चेहरों पर खौफ की कहानी लिखना?
क्यों जरूरी है मासूमों के सर से साया उठाना?
किसी का जाना, केवल जाना नहीं होता
वो ले जाता है अपने साथ
जीवन के तमाम रंग, खुशबुएँ और गुलाब
पथरीले पथ, काँटों की सेज और ज़िन्दगी की तपिश से
कौन सी नयी इबारत लिखोगे?
चाक दिल से निकलता है बस यही
काल के क्रूर चेहरे पर कोई रेशम फहरा दो
इसे किसी और ब्रह्माण्ड का रास्ता दिखा दो
बस बहुत हुआ - अब रुकना चाहिए ये सिलसिला
बख्श दो काल बख्श दो अब तो