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बुधवार, 6 दिसंबर 2017

द्वन्द जारी है ...

क्योंकि
सत्य तो यही है
देते हैं हम ही उपाधियाँ
और बनाते हैं समाधियाँ
वर्ना क्या पहचान किसी की
और न भी हो तो क्या फर्क पड़ जायेगा
अंतिम सत्य तो यही रहेगा
कोई जन्मा और मर गया
छोड़ गया अपने पीछे अपनी निशानियाँ
गायक, चित्रकार, कवि, लेखक के रूप में

जो जिसने कहा
सिर झुका मान लिया
और जिसने नही माना
तो उसे भी किया स्वीकार नतमस्तक हो

कितना आसान होगा कहना एक दिन
जिसे दिए आपने ये नाम
और उसने किये स्वीकार - सप्रेम 

जो तुमने बनाया बनती गयी
जबकि नहीं पाया उसने कभी खुद को किसी गिनती में
कवयित्री , समीक्षक, उपन्यासकार
'वंदना गुप्ता इज नो मोर'
हृदयतल से दे श्रद्धांजलि
हो जाएगी एक और रस्म अदा

जबकि
हकीकत के आईने दुरूह होते हैं
जब देखती हूँ खुद को अनंत की यात्रा पर जाते
सोचती हूँ
बस यही था क्या जीवन का औचित्य?
एक दिन सिमट जायेगी जीवन यात्रा क्या सिर्फ इन चंद लफ़्ज़ों में ?

द्वन्द जारी है ...

रविवार, 8 अक्टूबर 2017

हम आधुनिकाएं

हम आधुनिकाएं
जानती हैं , मानती हैं
फिर क्यों संस्कारगत बोई रस्में
उछाल मारती हैं
प्रश्न खड़ा हो जाता है 
विचारबोध से युक्त संज्ञाओं पर प्रश्नचिन्ह लगा जाता है

हम आधुनिकाएं
निकल रही हैं शनैः शनैः
परम्पराओं के ओढ़े हुए लिहाफ से
जानते बूझते भी आखिर क्यों ढोती हैं उन प्रथाओं को
जो मानसिक और शारीरिक गुलामी का पर्याय बनें
तो हम आज की स्त्री
नहीं मानती पति को देवता
नहीं पूजती उसे
जानती हैं
नहीं बढती उम्र किसी व्रत उपवास से
साँसों की माला में नहीं बढ़ता एक भी मनका
किसी अंधविश्वास से

हम आज की नायिकाएं नहीं ढोतीं अवैज्ञानिक तथ्यों को
हम तो बनाती हैं नयी लकीर प्रेम और विश्वास की
जहाँ कोई बड़ा छोटा नहीं
जहाँ कोई मालिक गुलाम नहीं
यहाँ तो होता है भजन बराबरी का
यहाँ तो होता है कीर्तन आत्मविश्वास का
तभी तो धता बता सब परम्पराओं को
आज की आधुनिकाओं ने
खोज लिया है अपना 'मुस्कान-बिंदु'


बस खुद की ख़ुशी के लिए 
खुद पर मर मिटने के लिए
एक अलग से अहसास को जीने के लिए
बहती हैं कभी कभी बनी बनायी परिपाटियों पर
तो वो
न तो खुद का शोषण है
न ही मान्यताओं का पोषण
ये 'स्व' उत्सव है
ये हमारी मर्ज़ी है
ये हमारी चॉइस है 

वैसे भी बनाव श्रृंगार हमारा गहना जो ठहरा 
तो खुद पर मोहित होना हमारा अधिकार 

बाज़ारवाद महज उपकरण है हमारे 'स्व' को श्रृंगारित करने का
और करवा चौथ एक अवसर

सदियों के सड़े-गले कवच तोड़ 
आज
आत्ममुग्ध हैं हम आधुनिकाएं


हैप्पी करवाचौथ :) :)

बुधवार, 27 सितंबर 2017

भय के ५१ पन्ने

लड़ो स्त्रियों लड़ो
लड़ो कि अब लड़ना नियति है तुम्हारी

करो दफ़न
अपने भय के उन ५१ पन्नो को
जो अतीत से वर्तमान तक
फडफडाते रहे , डराते रहे
युग परिवर्तन का दौर है ये

अतीत और वर्तमान की केंचुलियों में से
तुम्हें चुनना है अपना भविष्य
आने वाली पीढ़ी का भविष्य
तो क्या जरूरी है
शापित युग से उधार ली ही जाएँ साँसें
क्यों नहीं खदेड़ती शापित युग की परछाइयों को

भविष्य की नींव के लिए जरूरी है
अपनी न और हाँ के अंतर को समझना
न केवल समझना बल्कि समझाना भी
ये युग तुम्हारा है
ये जीवन तुम्हारा है
ये देह तुम्हारा है
और भविष्य परछाइयों की रेत से नहीं बना करता
उसके लिए जरूरी है
उलटना आसमां को 



न मतलब न भी नहीं होता
न मतलब हाँ भी नहीं होता
न मतलब वो होता है जो उन्होंने समझा होता है
वो देंगे परिभाषा
और अपनी बनायी परिभाषाएं ही करेंगे इतिहास में वो दर्ज
तो क्या हुआ
कोई दुर्गा कह दे या काली
लड़की कहे दे या दे गाली
अंततः वर्चस्व स्थापित करने को
जरूरी है तानाशाही...जानते हैं वो

चलो बदल लो इस बार
उनके भय को अपने भय से
कि सलीब पर हर बार तुम ही चढो, जरूरी नहीं
इस बार जितना वो दबाएँ डराएँ धमकाएं
उतना तुम खुलो, खिलो और महको
कि
भयभीत हैं वो
तुमसे, तुम्हारी सोच से , तुम्हारी खोज से

वक्त ने दिया है ताबीज तुम्हारे हाथ में
अब तुम पर है
सिरहाने रख सोना चाहती हो
गले पहन इठलाना
या उसे खोल पढना

दहशत के आसमान में सुराख के लिए
जरूरी है जपना ये महामंत्र
लड़ो स्त्रियों लड़ो
लड़ो कि अब लड़ना नियति है तुम्हारी 


©वन्दना गुप्ता vandana gupta 

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

और दे दिया मुझे उपनाम विनम्र अहंकारी का

उसने कहा : आजकल तो छा रही हो
                  बडी कवयित्री /लेखिका बनने के मार्ग पर प्रशस्त हो

मैने कहा : ऐसा तो कुछ नही किया खास

                तुम्हें क्यों इस भ्रम का हुआ आभास
                मुझे मुझमें तो कुछ खास नज़र नहीं आता
                फिर तुम बताओ तुम्हें कैसे पता चल जाता

उसने कहा : आजकल चर्चे होने लगे हैं

                  नाम ले लेकर लोग कहने लगे हैं
                  स्थापितों में पैंठ बनाने लगी हो

मैने कहा : ऐसा तो मुझे कभी लगा नहीं

                क्योंकि कुछ खास मैने लिखा नहीं

वो बोला : अच्छा लिखती हो सबकी मदद करती हो

                फिर भी विनम्र रहती हो
                मैं बता रहा हूँ …………मान लो

मैं कहा : मुझे तो ऐसा नहीं लगता

             वैसे भी अपने बारे में अपने आप
             कहाँ पता चलता है
             फिर भी मुझसे जो बन पडता है करती हूँ
             फिर भी तुम कहते हो तो
             चलो मान ली तुम्हारी बात 

वो बोला : इतनी विनम्रता !!!!!!!

              जानती हो ……अहंकार का सूचक है ?
              ज्यादा विनम्रता भी अहंकार कहलाता है

मैं बोली : सुना तो है आजकल

              सब यही चर्चा करते हैं

तब से प्रश्न खडा हो गया है

जो मेरे मन को मथ रहा है
गर मैं खुद ही अपना प्रचार करूँ
अपने शब्दों से प्रहार करूँ
आलोचकों समीक्षकों को जवाब दूँ
तो अतिवादी का शिकार बनूँ
और विद्रोहिणी कहलाऊँ
दंभ से ग्रसित कह तुम
महिमामंडित कर देते हो
ये तो बहुत मुखर है
ये तो बडी वाचाल है
ये तो खुद को स्थापित करने को
जाने कैसे कैसे हथकंडे अपनाती है
बडी कवयित्री या लेखिका बनने के
सारे गुर अपनाती है
जानते हो क्यों कहते हो तुम ऐसा
क्योंकि तुम्हारे हाथो शोषित नही हो पाती है
खुद अपनी राह बनाती है और बढती जाती है
पर तुम्हें ना अपनी कामयाबी की सीढी बनाती है

तो दूसरी तरफ़

यदि जो तुम कहो
उसे भी चुपचाप बिना ना - नुकुर किये मान लेती हूँ
चाहे मुझे मुझमें कुछ असाधारण ना दिखे
गर ऐसा भी कह देती हूँ
तो भी अहंकारी कहलाती हूँ
क्योंकि आजकल ये चलन नया बना है
जिसे हर किसी को कहते सुना है
ज्यादा विनम्र होना भी
सात्विक अहंकार होता है


तो बताओ अब ज़रा
मैं किधर जाऊँ
कौन सा रुख अपनाऊँ
जो तुम्हारी कसौटी पर खरी उतर पाऊँ ?

जबकि मैं जानती हूँ
नहीं हूँ किसी भी रैट रेस का हिस्सा
बस दो घडी खुद के साथ जीने को
ज़िन्दगी के कुछ कडवे घूँट पीने को
कलम को विषबुझे प्यालों मे डुबोती हूँ
तो कुछ हर्फ़ दर्द के अपने खूँ की स्याही से लिख लेती हूँ
और एक साँस उधार की जी लेती हूँ
बताओ तो ज़रा
इसमें किसी का क्या लेती हूँ

ये तो तुम ही हो
जो मुझमें अंतरिक्ष खोजते हो
मेरा नामकरण करते हो
जबकि मैं तो वो ही निराकार बीज हूँ
जो ना किसी आकार को मचलता है
ये तो तुम्हारा ही अणु
जब मेरे अणु से मिलता है
तो परमाणु का सृजन करता है
और मुझमें अपनी
कपोल कल्पनाओं के रंग भरता है
ज़रा सोचना इस पर
मैने तो ना कभी
आकाश माँगा तुमसे
ना पैर रखने को धरती
कहो फिर कैसे तुमने
मेरे नाम कर दी
अपनी अहंकारी सृष्टि
और दे दिया मुझे उपनाम
विनम्र अहंकारी का ………सोचना ज़रा
क्योंकि
खामोश आकाशगंगाये किसी व्यास की मोहताज़ नहीं होतीं
अपने दायरों में चहलकदमी कैसे की जाती है ………वो जानती हैं


(कविता संग्रह 'बदलती सोच के नएअर्थ' में प्रकाशित) 
©वन्दना गुप्ता vandana gupta  
 

बुधवार, 6 सितंबर 2017

विधवा विलाप की तरह ...

मत बोलना सच
सच बोलना गुनाह है
बना डालो इसे आज का स्लोगन

रावण हो या कंस
स्वनिर्मित भगवान
नहीं चाहते अपनी सत्ता से मोहभंग
और बचाए रहने को खुद का वर्चस्व
जरूरी है
आवाज़ घोंट देना

आवाज़ जो बन न जाए सामूहिक प्रलाप
आवाज़ जिसके शोर से न उखड जाएँ सत्ता के खूँटे
आवाज़ जिसका और कोई पर्याय नहीं
जानते हैं वो

तो जरूरी था दमन
दमन के लिए नहीं होती कोई नियमावली
दमन आज के युग का क्रांतिकारी कदम है
तो कैसे ढूंढते हो उसमें कोई मर्यादा?

सुनो
वो जो रोज करते हैं बड़े बड़े घोटाले
नहीं मारी जातीं उन्हें गोलियाँ
वो जो रोज करते हैं बलात्कार
नहीं खौला करता किसी का खून
वो जो रोज धोखे को बना लेते हैं धर्म का पर्याय
नहीं कसी जातीं उनकी मुश्कें
इस चुप्पे समय के प्रलाप पर मत बहाओ आँसू
कि तुम आ ही नहीं सकते किसी खाते में
जब तक नहीं मिला सकते उनकी हाँ में हाँ

ये वक्त का कमज़ोर पक्ष है
राहू, केतु और शनि का दुर्लभ संयोग है
नहीं सुने या सराहे जायेंगे तुम्हारे नज़रिए 
सुन लो
ओ कलबुर्गी, दाभोलकर,पानसारे, गौरी लंकेश
वो नहीं करते लिंग भेद 
गर करोगे विद्रोह या प्रतिरोध
देशद्रोह की श्रेणी तैयार है तुम्हारे लिए

सच तो बस एक कोने में सिसकने को बेबस है
आओ सत्य का अंतिम संस्कार करें
एक एक मुट्ठी मिटटी डाल अपने हिस्से की
विधवा विलाप की तरह ...

शनिवार, 26 अगस्त 2017

इक गमगीन सुबह

इक गमगीन सुबह के पहरुए
करते हैं सावधान की मुद्रा में
साष्टांग दंडवत
कि
वक्त की चाबी है उनके हाथों में
तो अकेली लकीरें भला किस दम पर भरें श्वांस


ये अनारकली को एक बार फिर दीवार में चिने जाने का वक्त है

रविवार, 13 अगस्त 2017

बच्चे सो रहे हैं

बच्चे सो रहे हैं
माँ अंतिम लोरी सुना रही है

मत ले जाओ मेरे लाल को
वो सो रहा है
चिल्ला रही है , गिडगिडा रही है , बिलबिला रही है

उसके कपडे, खिलौने , सामान संवार रही है
सोकर उठेगा उसका लाल
तब सजाएगी संवारेगी
मत करो तुम हाहाकार
कह, समझा रही है

सुनिए ये सदमा नहीं है
हकीकत है
दर्द है
बेबसी है
हकीकत को झुठलाने की

क्योंकि
मौत तो एक दिन आनी ही होती है , आ गयी
जान जानी ही होती है , चली गयी
कर्णधारों के कान पर जूँ नहीं रेंगनी होती, नहीं रेंगी

फिर नाहक शोर मचाते हो
एक माँ रो रही है , रोने दो उसे
मनाने दो मातम उसे
उम्र भर के लिए
कि
बच्चों की बारात जो निकली है

ये माओं के सम्मिलित रुदन की घड़ी है
जाने क्यों फिर भी
आसमां नहीं फटा
खुदा भी नहीं रोया आज

शायद माओं से डर गया
गर दे दिया श्राप तो?

शायद इसीलिए
अब कंसों से मुक्ति के लिए नहीं जन्म लेते कन्हाई ...

शनिवार, 5 अगस्त 2017

ये बेहया बेशर्म औरतों का ज़माना है

कल तक बात की जाती थी फलानी को पुरस्कार मिला तो वो पुरस्कार देने वाले के साथ सोयी होगी .....आज जब किसी फलाने को मिला तो कहा जा रहा है उसे तब मिला जब वो देने वाली के साथ सोया होगा ........ये किस तरफ धकेला जा रहा है साहित्य को ? क्या एक स्त्री को कभी सेक्स से अलग कर देखा ही नहीं जा सकता? क्या स्त्री सिवाय सेक्स मटेरियल के और कुछ नहीं ? और तब कहते हैं खुद को साहित्य के खैर ख्वाह......अरे बात करनी थी किसी को भी तो सिर्फ कविता पर करते लेकिन स्त्री को निशाना बनाकर अपनी कुत्सित मानसिकता के कौन से झंडे गाड़ रहे हैं ये लोग?

छि: , धिक्कार है ऐसी जड़ सोच के पुरोधाओं पर ......जाने अपने घर की औरतों को किस दृष्टि से देखते होंगे और उनके साथ क्या व्यवहार करते होंगा......स्त्री सिर्फ जंघा के बीच आने वाला सामान नहीं ......किसी को भी किसी भी स्त्री का अपमान करने का अधिकार नहीं मिलता.......जब भी बात करिए उसके लेखन की करिए , उसके निर्णय की करिए न कि उस पर आक्षेप लगाइए ......वर्ना एक दिन यही स्त्रियाँ एकत्र हो कर देंगी तुम्हें साहित्य से निष्कासित .....फिर कोई कितना भी बड़ा साहित्य का दरोगा ही क्यों न हो .......अब समय आ गया है सबको एकत्र हो इसी तरह हर कुंठित मानसिकता को जवाब देने का ....

साहेब
ये बेहया बेशर्म औरतों का ज़माना है
जो नहीं आतीं जंघा के नीचे
फिसल जाती हैं मछली सी
तुम्हारी सोच के दायरे से

बेशक नवाज़ दो तुम उन्हें
अपनी कुंठित सोच के तमगों से
उनकी बुलंद सोच
बुलंद आवाज़
कर ही देगी खारिज तुम्हें
न केवल साहित्य से
बल्कि तुम्हें तुम्हारी नज़र से भी

ये आज की स्त्रियाँ हैं
जो नहीं करवातीं अब चीरहरण शब्दों से भी
और तुम तुले हो
एक बार फिर द्रौपदी बनाने पर
संभल कर रहना
निकल पड़ी है
बेहयाओं की फ़ौज लेकर झंडा
अपनी खुदमुख्तारी का

सुनो
बेहया शब्द तुम्हारी सोच का पर्याय है
स्त्री की नहीं
वो कल भी हयादार थी , आज भी है और कल भी रहेगी
बस तुम सोचो
कैसे खुद को बचा सकोगे कुंठा के कुएं में डूबने से
कि फिर अपना चेहरा ही न पहचान सको

सुनो
मर्यादा का घूँघट इस बार डाल कर ही रहेंगी ये स्त्रियाँ ...तुम्हारी जुबान पर
 
डिसक्लेमर :
ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है, ये किसी भी अन्य लेख या बौद्धिक संम्पति की नकल नहीं है।
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©वन्दना गुप्ता vandana gupta  
 

शनिवार, 29 जुलाई 2017

थोडा सा खुश होना तो बनता है न

मित्रों मुझे ये सूचना अभी अभी Surjit Singh जी की वाल से मिली. न उन्होंने मुझे टैग किया न शेयर का आप्शन है इसलिए स्क्रीन शॉट लेकर ही लगा रही हूँ

ये तो मेरे लिए एक बहुत बड़ा सरप्राइज है .......मैं तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी ऐसा हो सकता है ......रेडियो 'देश प्रदेश' के स्टूडियो में मेरे दो कविता संग्रहों 'प्रश्नचिन्ह...आखिर क्यों?' और 'कृष्ण से संवाद' से 10 कविताओं की रिकॉर्डिंग की गयी .

अब उन्ही के शब्दों में :
आज रेडियो 'देश-प्रदेश' के स्टूडियो में दिल्ली की रहने वाली प्रसिद्ध हिन्दी कहानीकार व कवयित्री वन्दना गुप्ता के काव्य संग्रह 'प्रश्न चिन्ह...आखिर क्यों ?' और 'कृष्ण से संवाद' से दस कविताओं की रिकार्डिग मेरे द्वारा करवाई गई। इस अवसर पर पंजाबी के प्रसिद्ध कथाकार गुरपाल लिट्ट भी स्टूडियो में मौजूद रहे। श्री लिट्ट ने वन्दना गुप्ता की कविताओं और काव्य शैली को उच्च स्तरीय बताया। उन्होंने कहा कि कविताएँ सरल, गम्भीर, दार्शनिक ओर रोचक हैं।
इस अवसर पर पंजाबी के प्रसिद्ध कथाकार गुरपाल लिट्ट भी स्टूडियो में मौजूद रहे। श्री लिट्ट ने वन्दना गुप्ता की कविताओं और काव्य शैली को उच्च स्तरीय बताया। उन्होंने कहा कि कविताएँ सरल, गम्भीर, दार्शनिक ओर रोचक हैं।


यदि कोई मित्र इस प्रसारण को सुनता हो तो यदि वो उसे रिकॉर्ड कर सके तो मेरी ख़ुशी दोगुनी हो जायेगी.
मेरा थोडा सा खुश होना तो बनता है न :) :) 

https://www.facebook.com/surjit.vishad/posts/1979122112365996?comment_id=1979135779031296&reply_comment_id=1979141412364066&notif_t=feed_comment_reply&notif_id=1501323969310319