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रविवार, 8 अक्टूबर 2017

हम आधुनिकाएं

हम आधुनिकाएं
जानती हैं , मानती हैं
फिर क्यों संस्कारगत बोई रस्में
उछाल मारती हैं
प्रश्न खड़ा हो जाता है 
विचारबोध से युक्त संज्ञाओं पर प्रश्नचिन्ह लगा जाता है

हम आधुनिकाएं
निकल रही हैं शनैः शनैः
परम्पराओं के ओढ़े हुए लिहाफ से
जानते बूझते भी आखिर क्यों ढोती हैं उन प्रथाओं को
जो मानसिक और शारीरिक गुलामी का पर्याय बनें
तो हम आज की स्त्री
नहीं मानती पति को देवता
नहीं पूजती उसे
जानती हैं
नहीं बढती उम्र किसी व्रत उपवास से
साँसों की माला में नहीं बढ़ता एक भी मनका
किसी अंधविश्वास से

हम आज की नायिकाएं नहीं ढोतीं अवैज्ञानिक तथ्यों को
हम तो बनाती हैं नयी लकीर प्रेम और विश्वास की
जहाँ कोई बड़ा छोटा नहीं
जहाँ कोई मालिक गुलाम नहीं
यहाँ तो होता है भजन बराबरी का
यहाँ तो होता है कीर्तन आत्मविश्वास का
तभी तो धता बता सब परम्पराओं को
आज की आधुनिकाओं ने
खोज लिया है अपना 'मुस्कान-बिंदु'


बस खुद की ख़ुशी के लिए 
खुद पर मर मिटने के लिए
एक अलग से अहसास को जीने के लिए
बहती हैं कभी कभी बनी बनायी परिपाटियों पर
तो वो
न तो खुद का शोषण है
न ही मान्यताओं का पोषण
ये 'स्व' उत्सव है
ये हमारी मर्ज़ी है
ये हमारी चॉइस है 

वैसे भी बनाव श्रृंगार हमारा गहना जो ठहरा 
तो खुद पर मोहित होना हमारा अधिकार 

बाज़ारवाद महज उपकरण है हमारे 'स्व' को श्रृंगारित करने का
और करवा चौथ एक अवसर

सदियों के सड़े-गले कवच तोड़ 
आज
आत्ममुग्ध हैं हम आधुनिकाएं


हैप्पी करवाचौथ :) :)