छंदबद्ध कविता
गेयता रस से ओत प्रोत
जैसे कोई सुहागिन
सोलह श्रृंगार युक्त
और दूसरी तरफ
अतुकांत छन्दहीन कविता
जैसे कोई विधवा श्रृंगार विहीन
मगर क्या दोनों के
सौष्ठव में कोई अंतर दीखता है
गेयता हो या नहीं
श्रृंगार युक्त हो या श्रृंगार विहीन
आत्मा तो दोनों में ही बसती है ना
फिर चाहे सुहागिन हो
या वैधव्य की ओढ़ी चादर
कैसे कह दें
आत्मिक सौंदर्य
कला सौष्ठव
वैधव्य में छुप गया है
वैधव्य हो या अतुकांत कविता
भाव सौंदर्य - रूप सौन्दर्य
तो दोनों में ही समाहित होता है
ये तो सिर्फ देखने वाले का
दृष्टिकोण होता है
कृत्रिम श्रृंगार से बेहतर तो
आंतरिक श्रृंगार होता है
जो विधवा के मुख पर
उसकी आँख में
उसकी मुस्कराहट में
दर्पित होता है
तो फिर कविता का सौंदर्य
चाहे श्रृंगारित हो या अश्रृंगारित
अपने भाव सौंदर्य के बल पर
हर प्रतिमान पर
हर कसौटी पर
खरा उतारकर
स्वयं को स्थापित करता है
यूं ही नहीं वैधव्य में भी आकर्षण होता है ..........