कोई चीत्कार
सुनी नहीं
मगर फिर भी
चीत्कार होती है
जो बिना सुने
भी सुनाई देती है
अंतर्मन को
झकझोरती है
सागर के फेन
सा जीवन
उसमें भी
वक़्त के तरकश में
दबी , ढकी ,
अंधकार में डूबी
कुछ वीभत्स करती
आत्मा को
झिंझोड़ती आवाजें
बिना कहे भी
बहुत कुछ
कह जाती हैं
उस अंधकार की
कालकोठरी में
चीत्कारती हैं
मगर उन्हें
वहीँ उन्ही
तहखानो में
दफ़न कर दिया
जाता है
जवाब तो तब मिले
जब सवाल करने
का हक हो ?
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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
पत्थर हूँ मैं
पत्थर हूँ ना
खण्ड- खण्ड
होना मंजूर
पर पिघलना
मंजूर नहीं
स्थिर , अटल
रहना मंजूर
पर श्वास , गति
लय मंजूर नहीं
पत्थर हूँ ना
पत्थर- सा
ही रहूँगा
अच्छा है
पत्थर हूँ
कम से कम
किसी दर्द
आस , विश्वास
का अहसास
तो नहीं
कहीं कोई
जज़्बात तो नहीं
किसी गम में
डूबा तो नहीं
किसी के लिए
रोया तो नहीं
किसी को धोखा
दिया तो नहीं
अच्छा है
पत्थर हूँ
वरना
मानव
बन गया होता
और स्पन्दनहीन बन
मानव का ही
रक्त चूस गया होता
अच्छा है
पत्थर हूँ
जब स्पन्दनहीन
ही बनना है
संवेदनहीन
ही रहना है
मानवीयता से
बचना है
अपनों पर ही
शब्दों के
पत्थरों से
वार करना है
मानव बनकर भी
पत्थर ही
बनना है
तो फिर
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं
खण्ड- खण्ड
होना मंजूर
पर पिघलना
मंजूर नहीं
स्थिर , अटल
रहना मंजूर
पर श्वास , गति
लय मंजूर नहीं
पत्थर हूँ ना
पत्थर- सा
ही रहूँगा
अच्छा है
पत्थर हूँ
कम से कम
किसी दर्द
आस , विश्वास
का अहसास
तो नहीं
कहीं कोई
जज़्बात तो नहीं
किसी गम में
डूबा तो नहीं
किसी के लिए
रोया तो नहीं
किसी को धोखा
दिया तो नहीं
अच्छा है
पत्थर हूँ
वरना
मानव
बन गया होता
और स्पन्दनहीन बन
मानव का ही
रक्त चूस गया होता
अच्छा है
पत्थर हूँ
जब स्पन्दनहीन
ही बनना है
संवेदनहीन
ही रहना है
मानवीयता से
बचना है
अपनों पर ही
शब्दों के
पत्थरों से
वार करना है
मानव बनकर भी
पत्थर ही
बनना है
तो फिर
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं