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बुधवार, 21 जून 2017

ज़िन्दगी के कोष्ठक में...

जाने कैसे चलते चलते किसी को कोई यूं ही मिल जाया करता है ...यहाँ तो उम्र के सिरे हाथ से छूटते रहे मगर किसी गुनगुनी धूप का कोई साया भी न पसरा किसी कोने में ...जाने कौन से लोग थे जिन्हें तुम और मैं दो रूपक मिले यहाँ तो सिर्फ उम्र से ही बावस्ता रहे ...कि किरच किरच चटखती है अक्सर रूह की वादियों में और सावन है कि कभी बरसा ही नहीं फिर कैसे और कौन कहे सावन को आने दो ...तुम आ गए हो नूर आ गया है एक कागज़ी ख्याल भर रहा जिस्म का ज़र्रा ज़र्रा सुलगता ही रहा ...ये अकेलेपन के तांबई रंग हैं जो किसी बाज़ार में नहीं चला करते ...तांबे के सिक्कों का चलन तो एक युग बीता बंद हो चुका है फिर क्यों रूह की बतखें कुलबुलाते हुए क्वैक क्वैक करती हैं ...आओ आमीन के साथ बंद करो चैप्टर कि संगसार होने का वक्त है ये जहाँ तुम्हारे अपने सिवा तुमसे कोई नहीं मुखातिब ...विषकन्या का रोल ख़त्म होता है कि वो पैदाइश है तुम्हारी , तुम्हारे सपनो की, तुम्हारे मिटने की ...अब टन टन की आवाज़ से बजता समय का घंटा सूचना है रुखसती की कि यहाँ विदाई की रस्में गाजे बाजे से नहीं निभायी जातीं ...करो विषपान जीवन की निस्सारता का ...और गाओ गीत ...मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया ...लो अंतिम अध्याय सम्पूर्ण हुआ ...मिलेंगे फिर किसी ज़िन्दगी के किसी कोष्ठक में ...तब तक अलविदा ज़िन्दगी