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बुधवार, 28 दिसंबर 2011

क्या कर सकोगे तुम ऐसा


जानती हूँ
हाल तेरा तुझसे ज्यादा
जो बातें तेरा दिल
तुझसे नहीं कह पता
वो मुझे आकर बता जाता है
देख कितना अपना है
मत रातों को ख्वाब
सजाया कर
मत रात के तकिये पर
मोहब्बत सजाया कर
खामोश दीवारें
कब बोली हैं
वहाँ तो सिर्फ
मोहब्बत चिनी है
मोहब्बत की है
दर्द भी सहना होगा
वियोग का गम भी
हँस के पीना होगा
ये तू भी जानता है
और मैं भी
फिर इतनी बेकरारी क्यूँ
चाहत को मंजिल मिल जाये
तो बुलंद कब होती है
जो मिटटी में मिल जाये
हर आग में जल जाये
हर सितम सह जाये
मौत भी जहाँ
रुसवा हो जाये
तब जानना
वो ही मोहब्बत होती है
छोड़ दे रातों को जागना
छोड़ दे दरो दीवार से लिपटना
करनी है तो ऐसे कर मोहबब्बत
कि काँटों को भी रश्क होने लगे

चाँद तारे भी सजदा करने लगें
जमीं आसमाँ भी तेरे क़दमों तले
झुकने लगें
मोहब्बत में फ़ना होना बड़ी बात नहीं
मज़ा तो तब है जिए तो ऐसे
तेरे जीने से दुनिया को
रश्क होने लगे
क्या कर सकोगे तुम ऐसा
मोहब्बत की खातिर
दे सकोगे मोहब्बत का इम्तिहान

और जी सकोगे हँस कर…………

रविवार, 25 दिसंबर 2011

ज़रा एक नज़र इधर भी………हम भी खडे हैं राह में………ये है मेरा सफ़र


वंदना गुप्ता का खामोश सफ़र




प्रिय मित्रो

सादर ब्लॉगस्ते

इये मित्रो आज क्रिसमस के शुभ अवसर पर काजू और किशमिश खाते हुए मिलते हैं ब्लॉग जगत के एक सक्रियसदस्य सेजी हाँ मैं बात कर रहा हूँ वंदना गुप्ता जी कीदिल्ली के आदर्श नगर में रहते हुए अपने माता-पिता केआदर्शों को मन में संजोये हुए ये लगी हुईं हैं ब्लॉग लेखन द्वारा हिंदी माँ की सेवा मेंइनके पिता तो चाहते थे  किउनकी बेटी आई..एसअधिकारी बने लेकिन बन गयीं ये लेखक और ब्लॉगरअब होनी को जो मंज़ूर होता है वो हीहोता हैअब सोचिये यदि ये आई..एसअधिकारी  बन जाती तो ब्लॉग जगत की रौनक का क्या होताअथवा ब्लॉगर सम्मेलन उबाऊ  हो जातेतो आइये धन्यवाद दें उस दुनिया बनाने वाले को जिन्होंने इस दुनिया कोऔर वंदना गुप्ता जी को बनाया और इन्हें आई..एसअधिकारी नहीं बनायावंदना गुप्ता जी लेखन की विविधविधाओं में लिखती हैं और बाकी बचा-खुचा चलिए इन्हीं से पूछ लेते हैं
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गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

पहचान प्रश्नचिन्ह तो नहीं


पहचान प्रश्नचिन्ह तो नहीं
पहचान तो खुद बोलती है
बिना किसी शब्द के
बिना किसी मोल भाव के
पहचान तो बनती ही है 
फिर चाहे जड़ हो या चेतन
चाहे कोई भी रूप हो रंग हो 
बिना पहचान के तो अस्तित्व बोध नहीं 
हवा की भी तो पह्चान है ना 
गुजरती है तो स्पर्श करती है ना 
जो दृश्यमान नही फिर भी 
अपनी पहचान दे जाती है 
फिर इंसान तो एक बोलती घडी है समय की 
रुकने से पहले अपनी पहचान बनाता ही है 
चाहे अच्छी हो या बुरी 
यूँ ही नही बनते शेक्सपीयर या लिंकन
यूं ही नहीं याद किया जाता 
सिर्फ़ नाम ही पहचान नही बन गया 
एक पहचान ने ही तो नाम अमर कर दिया.........
पहचान पर तो प्रश्नचिन्ह लग ही नहीं सकता ..........

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

तेरे बिना जिया लागे ना




सुनो 
देखो ना
इक युग बीता
मगर देखो तो
मेरी आस का टोकरा
कभी रीता ही नही
सबने मुझे बावरी बना दिया
तेरे विरह में ये नाम दे दिया
मगर तुम बिन मेरा ना
कोई पल रहा अछूता
फिर भला कैसे कहूं 
तेरे बिना जिया लागे ना
तुम तो सदा
मेरी आँख की ओट में

करवट लेते रहे
कभी नींद में तो कभी ख्वाब में
मिलते जुलते रहे
सुना है
दुनिया कहती है
तुम यहाँ कहीं नहीं हो अब
अब नहीं आओगे वापस
जाने वाले फिर नहीं आते
मगर ये तो बताओ
तुम गए कहाँ से हो
क्या मेरी यादों से
क्या मेरे नयनों से
क्या मेरे दिल से
हर पल तो तुम्हें
निहारा करती हूँ
हर पल तुम्हारा वजूद
मेरे ख्वाबों से
अठखेलियाँ करता है
कभी रूठा करते हो
कभी मनाया करते हो
कभी मेरी माँग
अपनी प्रीत से सजाया करते हो
कभी चाँदनी रात में
मेरी वेणी में फूल लगाया करते हो
कभी किसी झील के किनारे
ठहरे हुए पानी में
चाँद की सैर पर ले जाया करते हो
कभी तारावली के फूलों से
धरती सजाया करते हो
और मुझे वहाँ किसी
ख्वाब सा सजाया करते हो
तो बताओ ना
कौन है दीवाना
ये दुनिया या मैं
बताओ तो
जब हर पल
हर सांस में
हर धड़कन में
मेरी रूह में
तुम ही तुम समाये हो
फिर कैसे कह दूं
तेरे बिना जिया लागे ना

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

तुम ज़िन्दा हो मुझमे


 




राख कहो या देह

हथेली कहो या लकीर

मगर राखो की कब

होती है तकदीर

कभी पीकर देखा है
घोलकर राख को
देखना एक बार
कोशिश तो करना
पीने की और फिर
जीने की
सच कहती हूँ
अपना वजूद नही पाओगे
राख मे ही तब्दील हो जाओगे
राख मरकर भी अमर होती है
क्योंकि अस्तित्व मे तो रहती है
मगर तुम कहाँ रहोगे
कहाँ खुद को ढूँढोगे
वजूद के साथ
अस्तित्व भी मिट जायेगा
तुम्हारी राख का भी
वारिस ना मिल पायेगा
तब तक जब तक
मै ये ना चाहूँ
और देखो 

मेरी मोहब्बत ने

राख को भी

अर्थ दे दिया

वजूद उसका भी

समेट दिया
एक अस्तित्व मे
हाँ ……राख होकर भी
तुम ज़िन्दा हो मुझमे

ज़िन्दा ऐसे रहा जाता है
और ऐसे रखा जाता है
देखा है कभी खूँ भरा अश्कों का समंदर ?

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

खुद ही प्रेम , खुद ही प्रेमी और खुद ही प्रेमास्पद




जब सर्वस्व समर्पण कर दिया फिर कोई चाह नही होती सिर्फ़ उसकी रज़ा मे ही अपनी रज़ा होतीहै और वो ही तो सच्ची मोहब्बत होती है ………

देखें कौन किससे कितनी मोहब्बत करता है? 
चलो आज ये भी आजमा लें ए खुदा 
तू है खुदा या मै हूं खुदा 
बन्दगी के अन्तिम छोर तक चलते चले जायें 
बन्दगी मे ना पता चलता
 कौन है खुदा और कौन महबूब 
चल इसी बहाने कर लें इबादत 
तू मुझे आजमा ले मै तुझे आजमा लूँ 
या तू मुझे भूल जाये या मै तुझे याद आऊँ 
चाहे तू जीत जाये चाहे मै हार जाऊँ 
दोनो सूरत मे तुझमे ही समाऊँ
 तेरा ही स्वरूप बन जाऊँ 
मेरा लोप हो जाये
तेरा ही अक्स हर तरफ़ छाये 




बस एक बार उससे बात शुरु हो जाती है ना  फिर पता नही चलता कि कौन

 क्या कह रहा है और किसे कह रहा है बस हर ओर उसका ही नज़ारा दिखता है


जब चूनर पर रंग चढ जाये फिर सब रंग चटक ही नज़र आयें

मेरे नैनो मे अटका है श्याम

मेरी पलको पर नाचता है श्याम

मेरी सांसो मे थिरकता है श्याम

मेरी धडकन बन धड्कता है श्याम 

मेरे रोम रोम मे बसा है श्याम

मै तो हो गयी अब श्याम ही श्याम 

मुझे आये ना कहीं आराम 

…………
ए री कोई श्याम से मिलन करा दो

……
ए री कोई सजन को संदेसा पहुंचा दो


ए री कोई प्रेम को प्रेम से मिला दो








ये मिलन तो हो रहा है मगर दृष्टिमान नहीं है शायद तभी वो अगोचर है 

गोचर नहीं हो पा रहा और दीवानी देखो कैसे मतवाली हो रही है 




मेरी पीर को जाने ना कोई 


मै तो श्याम की दीवानी होई

 अंखियां दर्शन को तरस गयीं

 किस विधि मिलना होई

उनसे जाके कह दो कोई

 तेरी दीवानी तुझ बिन देखो 

सूख सूख के कांटा होई 

मेरी पीर ना जाने कोई





यद्यपि  जानता है सब ...उससे जुदा क्या है पर दीवानी के मन के भावों 

को भी तो शब्द देने हैं ना उसे ........शायद तभी शब्दों के माध्यम से 

उतर रहा है और उसके भावों में ढल उसे सुकून दे रहा है .....आह ! प्रेम 

का अद्भुत संयोग तो देखो 

खुद ही प्रेम , खुद ही प्रेमी और खुद ही प्रेमास्पद  





वो जानता है 

वो झेलता है 

वो खुद ही तो रोता है 

वो हर दर्द से गुजरता है 

हर पीर को सहता है 

वो हर भाव मे बसता है 

हर सोच मे जीता है 

उसका ही नूर समाया है 

तभी तो ये दर्द उभर आया है………

वो अश्रुओं मे खुद ही तो ढलता है

नीर बनकर बहता है

हाय !मोहन तू क्यूँ इतना दर्द सहता है 

बस इसी दर्द का तो दर्द होता है 

वरना मै तो कहीं हूँ ही नही…………अस्तित्वविहीन पुंजों मे दर्द कब 

बहता है



बुधवार, 7 दिसंबर 2011

रोज मोहब्बत की छाँव नहीं होती .............


कुछ ज्यादा तो नही चाहा मैने
ना आस्मां के सितारे चाहे
ना समन्दर से गहरा प्यार
ना मोहब्बत के ताजमहल चाहे
ना ख्वाबो की इबादतगाह
ना तुझसे तेरा अक्स ही मांगा
ना तुझसे तेरी चाहत ही
फिर भी खफ़ा है ज़माना
जो सिर्फ़ इक लम्हे को
कैद करना चाहा
नज़रों के कैदखाने मे
पलकों के कपाट मे
बंद करना चाहा
आँसुओं के ताले लगा
लम्हे को जीना चाहा
आँसुओ की सलवटों मे
सैलाब कहाँ छुपे होते हैं
वो तो खुद लम्हों की
खताओं मे दफ़न होते हैं
फिर किस खता से पूछूं
उसकी डगर का पता
यहाँ तो अलसाये से दरख्तों पर भी
उदासियों वीरानियों का शोर है 

फिर हर वजूद को मिलें
मोहब्बत के मयखाने 
ऐसा कहाँ होता है 
शायद तभी कुछ वजूदों पर
रोज मोहब्बत की छाँव नहीं होती .............

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

"सिर्फ तुम्हारे लिए .........just for you "





क्या कहा तुमने?
सिर्फ मेरे लिए...........
चाँद को झील में ठहरा दिया
धरती को सूरज का चक्कर 
लगाने से रोक दिया
अमावस को कभी बीच में 
ना आने के लिए कह दिया
युगों को पल में ठहरने को कह दिया
रूह को आमंत्रण दे दिया
इसी जन्म में हसरतें पूरी करने का
देखो मेरी आँख में एक मोती 
आकर ठहर गया है मगर ...........
आह! बहुत देर कर दी तुमने
जिस्म तो कभी था ही नहीं
मगर रूह कहाँ से लाऊँ
अब तो वो भी काल कवलित हो गयी 
अब करना होगा फिर किसी 
जन्म तक इंतज़ार
फिर किसी युग का इंतज़ार
फिर किसी दूसरे ब्रह्माण्ड में
किसी दूसरे ग्रह पर
किसी दूसरे परिवेश में
किसी दूसरे रूप में
शायद पहचान जाएँ इक दूजे को 
और हो जाए आत्माओं का मिलन
मगर क्या ऐसा होगा?
ये कोरा भ्रम ही तो नहीं
मन बहलाने का एक जरिया तो नहीं
इस जन्म की भटकती रूह को
दिलासा देने का उपक्रम तो नहीं
क्यूँकि आज तक सिर्फ सुना ही तो है
इस जन्म में नहीं तो
फिर किसी जन्म में मिलेंगे हम
मगर क्या तुमने कभी देखा है
किसी रूह को किसी मोहब्बत की 
आरती उतारते हुए
किसी मोहब्बत की मांग में
मोहब्बत के सितारे लगाते हुए
नहीं ना ...........मैंने भी नहीं देखा
सिर्फ सुना है ..............
और हर सुनी हुई बात सच हो
जरूरी तो नहीं ना.............
चलो छोडो इन बातों को
कल क्या होगा ........नहीं जानते मगर 
मुझे , मेरी काल कवलित रूह को
तुम्हारे तीन शब्दों ने 
एक बार फिर से जिला दिया
हाँ वो ही तीन शब्द
"सिर्फ तुम्हारे लिए .........just for you "
बताओ तो अब कौन करे मौसम बदलने का इंतज़ार
जब ज़िन्दगी सिमट गयी हो
और तुम पर आकर ठहर गयी हो
कभी देखा है तुमने 
गिरे हुए फूलों को वापस लगते हुए
दरिया को उल्टा बहते हुए 
लो आज देख लो
लफ्ज़ किसी बख्तरबंद के मोहताज़ नहीं होते ...........

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

स्वीकार सको तो स्वीकार लेना





सुना है
आज के दिन 
वरण किया था
सीता ने राम का 
जयमाल पहनाकर
और राम ने तो 
धनुष के तोड़ने के साथ ही
सीता संग जोड़ ली थी
अलख प्रीत की डोरी
कैसा सुन्दर होगा वो दृश्य
जहाँ ब्रह्माण्ड नायक ने
आदिसृष्टि जगत जननी के साथ
भांवरे भरी होंगी
उस अलौकिक अद्भुत
अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव
क्या शब्दों की थाती कभी बन सकता है
आनंद तो अनुभवजन्य प्रीत है
फिर भुवन सिन्धु का भुवन सुंदरी संग
मिलन की दृश्यावली 
जिसे शेष ना शारदा गा पाते हैं
वेद भी ना जिनका पार पाते हैं
तुलसी की वाणी भी मौन हो जाती है 
चित्रलिखि सी गति हो जाती है 
उसका पार मैं कैसे पाऊँ
कैसे उस क्षण का बखान करूँ
बस उस आनंद सिन्धु में डूबने को जी चाहता है
कोटि कोटि नमन करती हूँ
 जीव हूँ ना ...........
बस नमन तक ही मेरी शक्ति है
यही मेरी भक्ति है ..........स्वीकार सको तो स्वीकार लेना 

शनिवार, 26 नवंबर 2011

हाँ ,आ गया हूँ तुम्हारी दुनिया में




हाँ, आ गया हूँ 
तुम्हारी दुनिया में
अरे रे रे ...........
अभी तो आया हूँ
देखो तो कैसा 
कुसुम सा खिलखिलाया हूँ

देखो मत बाँधो मुझे
तुम अपने परिमाणों में 
मत करो तुलना मेरे 
रूप रंग की 
अपनी आँखों से
अपनी सोच से 
अपने विचारों से
मत लादो अपने ख्याल 
मुझ निर्मल निश्छल मन पर

देखो ज़रा 
कैसे आँख बंद कर 
अपने नन्हे मीठे 
सपनो में खोया हूँ
हाँ वो ही सपने
जिन्हें देखना अभी मैंने जाना नहीं है
हाँ वो ही सपने
जिनकी मेरे लिए अभी 
कोई अहमियत नहीं है
फिर भी देखो तो ज़रा
कैसे मंद- मंद मुस्काता हूँ
नींद में भी आनंद पाता हूँ

रहने दो मुझे 
ब्रह्मानंद के पास
जहाँ नहीं है किसी दूजे का भास
एकाकार हूँ अपने आनंद से
और तुम लगे हो बाँधने मुझको
अपने आचरणों से
डालना चाहते हो 
सारे जहान की दुनियादारी 
एक ही क्षण में मुझमे
चाहते हो बताना सबको
किसकी तरह मैं दिखता हूँ
नाक तो पिता पर है
आँख माँ पर 
और देखो होंठ तो 
बिल्कुल दादी या नानी पर हैं
अरे इसे तो दुनिया का देखो
कैसा ज्ञान है
अभी तो पैदा हुआ है
कैसे चंचलता से सबको देख रहा है
अरे देखो इसने तो 
रुपया कैसे कस के पकड़ा है
मगर क्या तुम इतना नहीं जानते
अभी तो मेरी ठीक से 
आँखें भी नहीं खुलीं
देखो तो
बंद है मेरी अभी तक मुट्ठी
बताओ कैसे तुमने 
ये लाग लपेट के जाल 
फैलाए हैं
कैसे मुझ मासूम पर
आक्षेप लगाये हैं 



मत घसीटो मुझको अपनी
झूठी लालची दुनिया में
रहने दो मुझे निश्छल 
निष्कलंक निष्पाप 

हाँ मैं अभी तो आया हूँ
तुम्हारी दुनिया में
मासूम हूँ मासूम ही रहने दो न
क्यों आस  के बीज बोते हो
क्यों मुझमे अपना कल ढूंढते हो
क्यों मुझे भी उसी दलदल में घसीटते हो
जिससे तुम न कभी बाहर निकल पाए
मत उढाओ मुझे दुनियादारी के कम्बल
अरे कुछ पल तो मुझे भी 
बेफिक्री के जीने दो 
बस करो तो इतना कर दो
मेरी मासूम मुस्कान को मासूम ही रहने दो............

लो फिर आ गयी छब्बीस बटा ग्यारह..........अब तो कुछ शर्म कर लो

लो फिर आ गयी
छब्बीस बटा ग्यारह
एक दिन का शोर शराबा
फिर वो ही मंजर पुराना
सब  कुछ भुला देना
चादर तान के सो जाना
क्या फर्क पड़ता है
मासूमों की जान गयी
क्या फर्क पड़ता है
जिनके घर ना 
अब तक जले चूल्हे
क्या फर्क पड़ता है
जिसकी बेटी रही अनब्याही
क्या फर्क पड़ता है
दूधमुंहे से छिन गयी ममता प्यारी
क्या फर्क पड़ता है
माँ की आँख का ना सूखा पानी
क्या फर्क पड़ता है
जिसके घर ना मनी दिवाली
क्या फर्क पड़ता है
सूनी माँग में ना भरी लाली
क्या फर्क पड़ता है
अपाहिज के जीवन को मोहताज हुआ
क्या फर्क पड़ता है
जब स्कूल जाने की उम्र में
थाम ली हो घर की चाबी
दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में
बेच दी हों किताबें सारी
पेट की आग बुझाने को
ज़िन्दगी से लड़ जाने को
बिटिया ने हो घर की
बागडोर संभाली
किसी को फर्क ना 
तब पड़ना था
ना अब पड़ना है
ये तो सिर्फ तारीख की 
भेंट चढ़ता कड़वा सच है
जिसे खून का घूँट 
समझ कर पीना है
जहाँ अँधियारा 
उम्र भर को ठहर गया है
जहाँ ना उस दिन से 
कोई भोर हुई
किसी को ना कोई फर्क पड़ना है 
दुनिया के लिए तो 
सिर्फ एक तारीख है
एक दिन की कवायद है
राजनेताओं के लिए 
श्रद्धांजलि दे कर्त्तव्य की
इतिश्री कर ली जाती है
उस बाप की सूखी आँखों में ठहरा
खामोश मंजर आज भी ज़िन्दा है
जब बेटे को कंधे पर उठाया था
उसका कन्धा तो उस दिन
और भी झुक आया था 
बदल जाएगी तारीख 
बदल जायेंगे मंजर
पर बूढी आँखों में ठहर गया है पतझड़
अब तो कुछ शर्म कर लो
ओ नेताओं ! मत उलझाओ 
कानूनी ताने बानों में
मत फेंको कानूनी दांव पेंचों को
दे दो कसाब को अब तो फाँसी
शायद आ जाये 
उस बूढ़े के होठों पर भी हँसी
मरने से पहले मिल जाये उसे भी शांति
माँ की आँखों का सूख जाए शायद पानी
या फिर उसकी बेवा की सूनी माँग में 
सूने जीवन में , सूनी आँखों में 
आ जाए कुछ तो लाली 
मत बनाओ इसे सिर्फ
नमन करने की तारीख
अब तो कुछ शर्म कर लो 
अब तो कुछ शर्म कर लो.................